है नहीं कोई ठिकाना

**है नहीं कोई ठिकाना**
ढूंढता हूँ गांव अपना आज मैं जिस शहर में –
है नहीं कोई ठिकाना आज कल इस शहर में।
गांव की पगड॔डियों औ धूल उड़ते रास्ते,
गम खुशी में जी रहे थे हम सभी के वास्ते,
छा गयी वीरानियां हैं अब हमारे सफर में-
है नहीं कोई ठिकाना आज कल इस शहर में।
प्रेम के रिश्ते मधुर थे हर किसी से गांव में,
आचरण औ नेह की बेड़ी पड़ी थी पांव में,
दे रहे थे सब सहारा हर किसी को सफर में-
है नहीं कोई ठिकाना आज कल इस शहर में।
जिन्दगी को मैं सजाने जब चला था गांव से,
गैर से कह भी न पाया मैं थका हूँ पांव से ,
मैं “भ्रमर” उलझा रहा बस खाब के इस नगर में –
है नहीं कोई ठिकाना आज कल इस शहर में।।
**मोहन पाण्डेय ‘भ्रमर ‘