कृष्ण अर्जुन संवाद

(१) कुरुक्षेत्र का दृश्य
रणभू नित गरजत रही, उठे अश्व गजधूल।
शंखनाद से गूँज उठा, सारा नभ अनुकूल॥
रथ सजे, धनुष टंकारे, रण में वीर अपार।
किन्तु खड़ा अर्जुन अधीर, मन में संशय भार॥
(२) अर्जुन का संशय
देख कुटुम्ब बधे समक्ष, काँपे कर बलहीन।
छूटे गाण्डीव हाथ से, वचन हुए मधुहीन॥
बोले केशव! किम् कर्तव्यं? जीवन का संहार?
मुझसे ना हो पायगा, स्वजन पे यह वार॥
(३) श्रीकृष्ण का उत्तर (आत्मा का उपदेश)
कायरता क्यों मोह तुझे, यह क्षण धर्म प्रचार।
शत्रु नही, कर्तव्य है, कर मन को उद्गार॥
आत्मा अजर अमर सदा, देह नश्वर जान।
कर्म करे जो धर्मवत्, वह पावे निर्वाण॥
(४) कर्मयोग का उपदेश
कर्म किये जा चुप रहो, फल की मत कर आस।
जो फल की इच्छा करे, जीवन में हो त्रास॥
निष्काम भाव से कर्म कर, छोड़ मोह-संयोग।
तज देह-भ्रम जो कर्मरत, वही सच्चा योग॥
(५) अर्जुन का गहरा मानसिक द्वंद्व
बोले पार्थ सकुचाय कर, केशव कहो उपाय।
कैसे मिटे यह मोह मन, कौन बताए राह॥
जीवन है यह सत्य या, केवल माया खेल।
जो पाया फिर खो गया, कैसा यह संजोग॥
(६) श्रीकृष्ण द्वारा माया का रहस्य
सुन अर्जुन यह जगत बस, सपना सम निश्चय।
जो इसमें लिप्त रहत, वह पावे दुख निश्चय॥
माया यह बस नेत्रजाल, इससे ना हो आस।
सत् चित आनंद वही, जो हरता संत्रास॥
(७) विराट स्वरूप का दर्शन
जब श्रीकृष्ण विराट हुए, नभ मंडल लपटाय।
सूर्य-सहस्र सम तेज से, जग सारा घबराय॥
दिखे भुजाएँ असंख्य जब, सब दिशाएँ रुद्ध।
काँपा अर्जुन भय-वशत, ह्रदय हुआ शिथिलुद्ध॥
बोला पार्थ नमन् प्रभु, रूप कठिन अपार।
शांति दो, शरण लूँ मैं, अब ना मुझमें भार॥
(८) योगों की व्याख्या
कर्म करे जो धर्मवत, साँच हृदय स्वीकार।
वह कर्मयोगी श्रेष्ठ है, पावे नित्य उद्धार॥
ज्ञान बिना सब शून्य है, माया का यह जाल।
जो आत्मज्ञान को पायगा, तज दे मोह-जंजाल॥
भक्ति बिना सब व्यर्थ है, साधन करे हजार।
जो मुझमें अनुरक्त हो, पाए मोक्ष अपार॥
(९) अर्जुन का पूर्ण आत्मसमर्पण
बोले पार्थ नमन कर, केशव तव शरण।
अब मुझमें ना संशय रहा, तजु मोह-वरण॥
अब शस्त्र उठे, रण में बढूँ, करूँ धर्म संग्राम।
तेरी कृपा से जान लिया, जीवन का परिनाम॥
✍️✍️✍️Kavi Dheerendra Panchal