“भूले हैं हम रफ़्ता रफ़्ता”

भूल गए हम रफ़्ता रफ़्ता,दर्द पुराना दिल का हल्का-हल्का।
मग़र डर जाते उस उठती तीस से,जो रह रह कर दिल को रुलाती।।
वक़्त की शय पर थी सबकी सवारी,मन की चोट दिखाई ना जाती।
नींद से उठकर जब चिराग बुझाती,देख साया डर से मर जाती।
बात पुरानी जहन में चुभती,सारी दुनिया राक्षसी सी लगती।
ख़ामोश खड़ी पत्थर बन,हिलने डूलने की ना हिम्मत जुटा पाती।।
घड़ी की सुइयां ठक-ठक करती,साय-साय कर रात बहुत डराती।
पत्तों के हिलने की आवाज़े,किसी हथौड़े सी मन में चोट हैं करती।।
सुनकर आहट पैरों की,दौड़ी दौड़ी दरवाज़े तक जाती।
देख सयानी बिल्ली को, मैं धम से वहीं पर गिर जाती।।l
मधु गुप्ता “अपराजिता”