पच्चत्तर की दहलीज!!
हमारी सनातन संस्कृति में,
थी कुछ परंपराएं कुछ नियम,
चार आश्रम और चार वर्ण,
करते थे जिनका नित्य पालन!
लेकिन अब हमने,
बदल दिये हैं,
अपने तौर तरीके
और रहन सहन का ढंग,
समाज ने बांट दिया वर्ण,
ऊंच और नीच में,
जात और पात में!
बन गयी है एक खाई,
जो मिट नहीं पाई,
सदियों सदियों के सौहार्द,
और संबन्धो में!
जबकि होना तो यह चाहिए था,
जिसकी जितनी योग्यता,
निर्वाह करे वह वही कर्म,
पर इसे थोप दिया,
जन्म और कुल से,
कुलिन और निम्न से,
तो अब समाज में,
पनप रहा है असंतोष,
बढ रहा है रोष,
रंग भेद से वर्ग भेद में,
मतभेद से मन भेद में!
चल पडी है मुहिम,
निजात पाने की,
दासता से मुक्ति दिलाने की!
ऐसे में कुछ हैं सहमत,
और कुछ हैं उद्विग्न,
अभी चलने वाला है,
यह क्रम,
ठीक उसी तरह,
जैसे बनाए गए,
चार आश्रम ,
ब्रह्मचर्य, गृहस्थ,
वाणप्रस्थ और सन्यास,
जिसमें था एक विन्यास!
बचपन से लेकर यौवन तक,
उद्देश्य था शिक्षा का ग्रहण,
गृहस्थ कै लिए पाणिग्रहण,
सामंजस्य के साथ गृहस्थ का संचालन,
दायित्वों का निर्वहन ,
और तत्पश्चात,
वाणप्रस्थ की ओर गमन,
जन सरोकारों से जुडना,
अच्छा सद्कर्म करना,
दीन हीन की सेवा,
जिस समाज से पाया था अब तक,
उसके लिए कुछ अर्पित करना!
और फिर जैसे आ जाये,
उम्र पच्चत्तर की ओर,
घर बार छोड़,
निकल पडते थे,
वन गमन की ओर,
सब कुछ छोड़ छाड कर,
नाते रिस्ते,
माया,मोह,
हो जाता था पराया वो,
किंतु आज,
कौन कर रहा है यह सब,
जुटै हुऐ हैं पाने को अपने मंतव्य,
छूट नहीं रहा है माया मोह,
सुख सुविधा और सत्ता का लोभ,
कायम रहे यह व्यवस्था, सुविधा,
होती रहे चाहै दूसरों को असुविधा!
कुंडली मारकर बैठे हुए हैं,
जहरीलै नागों की तरह,
और पूजै जाते रहें,
हर पंचमी उत्सव की तरह,
चाहते हैं कफन में जाने तक,
सदैव बनै रहें हम!
वो भी क्या लोग थे,
जो अपने जीते जी,
सौंप दे तै थे
अपनी विरासत,
अपने योग्य उत्तराधिकारी को,
बिना हीलाहवाली कै,
और चले जाते थे,
साधु संतो की शरण में,
शरणांगत की तरह,
उन्हीं की सेवा में,
अर्पित कर दैतै थे,
शैष जीवन,
बिना कलेश या राग द्वेश कै,!
ना मोहमाया का भार,
ना आज जैसी मारा मार,
और यदि कोई अब,
जतला दै कोई यह बात,
है किसमें यह बिसात,(सामर्थ्य)
तो बुरा मान जाते हैं,
अपनी सेवाओं को,
देश दुनिया की खातिर,
आवश्यक बताते हैं,
कहते हैं अभी तो बहुत कुछ देना शेष है,
पर जबकि रहता सत्ता सुख ही उद्देश्य है,
इसलिए उठती जा रही है खीज,
आ जो गयी है पच्चत्तर की दहलीज,
मारने लगे हैं अभी सै हाथ पांव,
बस चल जाए अपना एक और दांव!!