संभाजी महाराज के कवि कलश”

मैं कवि कलश शंभुराजे का,
शिव वीर शिवपुत्र का गौरव।
जिसके रस में बसी हुई है,
मराठों की अमर विरासत नव।
शिवाजी का तेज समाया,
जिसकी रग-रग में बलिदान।
धर्म, स्वराज्य, स्वाभिमान का,
संभाजी था महान प्रमाण।
मुस्कुरा के मृत्यु को देखा,
कभी न भय से डोला।
कवि कलश जब गाया इनको,
पूरा गगन भी बोला।
धर्म रक्षा में कटे अंग सारे,
फिर भी स्वर न डगमगाए।
संभू राजे का कवि कलश,
तप की धारा बन जाए।
नयन जलधि, ओष्ठों पर वाणी,
गौरव गाथा गाए।
बलिदान की अमर ज्योति से,
युगों युगों तक छाए।
संभाजी राजे की यह धरती,
वीरों की सौगंध रही।
कवि कलश में शौर्य भरा है,
जिससे सिंह पुकार उठी।
जब-जब कलम उठे कवि की,
गाथा गाए बलिदानी।
संभाजी के तेज से गूंजे,
भारत माँ की कहानी।
मैं कवि कलश संभाजी का,
वीर रस से छलक रहा।
सत्य, धर्म और स्वाभिमान में,
सदा अमर बन झलक रहा।
कवि
आलोक पांडेय
गरोठ, मंदसौर, मध्यप्रदेश