पराकाष्ठा है जड़ता की ( मेरठ के सौरभ की व्यथा )

समझता जब से हूँ तुमको
सदा तुम मुझको भाते थे ,
इधर कुछ वर्षों से बेशक
बहाना तुम बनाते थे ।
जान कर सत्य सारा भी
बना जड़वत ही मैं रहता ,
हुनर तेरे विरोधों का
अनवरत मैं रहा खोता ।
तेरे बाजू में जो तस्वीर
मैंने गैर देखी थी ,
पता नहि फिर भी ये नजरे
सदा धोखे में रहती थी।
मरने के प्रथम जीने की
कोशिश लाख वह करता ,
हार कर जीवन से उसने
दिया तब मौत को न्योता।
इसे ही प्रेम का पावन
सदा वो शीर्ष कहते थे ,
घाव बढ़ता रहा था पर
उसे हम पकना कहते थे।
अगर विश्वास में विष है
तदन्तर आस भी तो है,
बिना समझे जो कर बैठे
बना उपहास भी तो है।
निभाना जिसको होता है
साथ हर हाल में रहता ,
छोड़ने के लिए बस एक
शिकायत काफी है होता।
शीर्ष पर जड़ता जो होती
व्यक्ति तब बावला बनता ,
पराकाष्ठा जब हो इसी की
जमाना पागल है कहता।
हद तो तब हुई जब देख
वे नजरे चुराते थे ,
समझ तिरछी नजर का प्रेम
सदा वे हमको भाते थे।
नया एक प्रेम का आयाम
मैंने तुझमे देखा था ,
पता नहि था सुनो निर्मेष
वो सुंदर एक धोखा था।
निर्मेष