“पुरुष का मौन: दर्दों की अनकही व्यथा”(अभिलेश श्रीभारती)

साथियों,
बड़े-बड़े विद्वान, लेखक, साहित्यकार जब-जब अपने कलम उठाया तब तब उन्होंने स्त्री के सुंदरता से लेकर उनकी महानता का गुणगान किया।।
पता नहीं स्त्री के सुंदरता के गुणगान करते हुए कलम के नीचे पुरुषों की पीड़ा कहां दब गई 😭
कहते हैं, स्त्रियों के लिए मायका होता है—एक ऐसा घर, जहाँ वे थकान महसूस करें तो लौट सकती हैं, जहाँ माँ का स्पर्श और पिता की छाया उन्हें संबल देती है। मगर पुरुष? उनके पास कोई मायका नहीं होता। ना कोई ऐसा आँगन, जहाँ वे निःसंकोच लौट सकें, जहाँ कोई उनके माथे पर हाथ फेरकर कहे—”थक गए हो न? थोड़ा आराम कर लो…”
पुरुष की ज़िंदगी एक निरंतर यात्रा है। जन्म से लेकर वृद्धावस्था तक वह किसी न किसी भूमिका में बंधा रहता है। जिम्मेदारियां की जंजीर हमेशा पुरुषों के पैर जकड़ी रहती है। बचपन में एक आज्ञाकारी पुत्र, युवावस्था में कर्तव्यनिष्ठ पति, और फिर एक ज़िम्मेदार पिता। हर रिश्ते में उसके हिस्से में कर्तव्य आता है, अधिकार नहीं। और ना ही वह कभी अपने अधिकार की बात करता है हां अधिकार की बात अवश्य करता है लेकिन सिर्फ अपनों के लिए अपने लिए नहीं। वह समाज की उस संरचना का हिस्सा है, जहाँ उसकी भावनाओं से ज़्यादा उसकी मजबूती की परख होती है।
अगर कोई बेटी पिता के घर आकर कहे कि वह थक गई है, तो पूरा घर उसे सहारा देने को तैयार हो जाता है। मगर एक बेटा? क्या उसे भी वही स्नेह मिलता है? जब वह थक जाता है, जब बोझ उसे झुका देता है, तब क्या कोई उसकी पीठ थपथपा कर कहता है—”ठीक है बेटा, कुछ दिन सुकून से रह लो…”?
कभी सुना है आपने नहीं ना,,
समाज ने पुरुष को एक मूक योद्धा बना दिया है। वास्तव में वो योद्धा से कम नहीं है क्योंकि वह दर्द भी महसूस करता है, पर कह नहीं सकता। आँसू भी आते हैं, पर बहा नहीं सकता। उसे सिखाया जाता है—”मर्द को दर्द नहीं होता।” पर क्या सच में ऐसा है?
कभी किसी पिता को देखिए, जो अपने बच्चों की इच्छाएँ पूरी करने के लिए अपनी छोटी-छोटी ख़ुशियों को कुर्बान कर देता है। कभी उस पति को महसूस कीजिए, जो अपनी पत्नी की मुस्कान के लिए अपने अरमानों को भूल जाता है। कभी उस बेटे को समझिए, जो माँ-बाप की जिम्मेदारियों को निभाने के लिए अपनी भावनाओं को पीछे छोड़ देता है। और दुनिया के सारे सुख सुविधाओ का त्याग कर सभी प्रकार के त्योंहार, उत्सव, महोत्सव की खुशिया और अपने सपने को गला घोट देता है और देखिए बेचारे को कभी जताते भी नहीं
क्या आपने कभी इस दर्द को महसूस किया। नहीं किया और शायद कर भी नहीं पाएंगे
पुरुष भी इंसान हैं, वे भी थकते हैं, वे भी टूटते हैं। उन्हें भी सहारे की ज़रूरत होती है, उन्हें भी यह सुनने की चाह होती है—”तुम्हारे होने से ही यह घर चलता है, तुम भी थोड़ा सुस्ता लो…”
लेकिन कोई नहीं कहता और यह सुनने मात्र के लिए उनके काम तरसते रहते हैं।
क्यों न हम भी अपने परिवार के उन पुरुषों को यह एहसास कराएँ कि वे भी मायके की भावना से जुड़े रह सकते हैं? कि वे भी लौट सकते हैं, सुस्ता सकते हैं, अपने दर्द बाँट सकते हैं। क्योंकि वे भी प्रेम और अपनापन पाने के हक़दार हैं।
लेकिन यह एक अधूरा सत्य हैं क्योंकि अक्सर पुरुष प्रेम और अपनापन के हक को जिम्मेदारियां की बोझ तलें कुचल देता है इसलिए पुरुषों को कोई अपना घर नहीं होता है। यदि वह कभी जिम्मेदारियां की बोझ लेकर अपने घर लौटते भी हैं तो ऐसा लगता है कि मानो किसी होटल की पड़ाव पर ठहरे हो दो-चार दिन बाद फिर प्रस्ताव कर जाना है अपने उसे घर के लिए जो उसका अपना है ही नहीं।।।
✍️लेखक व् कथाकार✍️
अभिलेश श्रीभारती: एक परदेशी
सामाजिक शोधकर्ता, विश्लेषक, लेखक
राष्ट्रीय उपाध्यक्ष तथा संगठन