“अर्चना तुम अवर्णनीय थी”

“अर्चना तुम अवर्णनीय थी”
अर्चना, तुम अवर्णनीय थी, शब्दों के परे,
एक अनछुई भावना, जो मन में भरे।
तुम्हारी उपस्थिति थी एक मधुर एहसास,
जिसे व्यक्त कर पाना था मुश्किल प्रयास।
जैसे सुबह की पहली किरण हो सुहानी,
या तारों भरी रात की खामोशी पुरानी।
वैसी ही तुम थी, शांत और गहरी,
तुम्हारी आभा में थी एक रहस्यमयी लहरी।
तुम्हारी मुस्कान में थी एक अलग ही कशिश,
जैसे मुरझाए हुए फूल में आ जाए फिर से रश्मि।
तुम्हारी आँखों में दिखता था सागर सा विस्तार,
जिसमें छिपे थे अनगिनत अनकहे विचार।
तुम्हारी बातों में थी एक सहजता की लय,
जैसे बहती नदी की कलकल हो निर्भय।
कभी गंभीर चिंतन, कभी हल्की सी हंसी,
तुम्हारी वाणी में थी एक अनोखी कशीश।
तुम किसी परिभाषा में बंधती नहीं थी,
अपनी ही राहों पर सदा चलती रही थी।
तुम्हारी सोच थी विस्तृत, कल्पना से भी आगे,
एक अलग ही दुनिया थी, जिसमें तुम थी जागे।
तुम्हें महसूस किया जा सकता था बस,
जैसे हवा का हल्का सा स्पर्श, जैसे फूलों की बस।
तुम्हारी यादें हैं अब मन में बसी,
एक अवर्णनीय एहसास बनके हरदम रची।
इसलिए कहती हूँ, तुम अवर्णनीय थी,
एक ऐसी स्मृति हो, जो सदा बनी रहे।
शब्द तो बस हैं इशारे अधूरे,
तुम तो थी वो एहसास, जो हृदय में सजे।
आलोक पांडेय
गरोठ, मंदसौर, मध्यप्रदेश।