ओस
हरी-हरी दूब पर भोर की ओस छरहरी जैसी
जिसके स्पर्शमात्र से ही सहसा
मेरे मन की उत्कंठाएँ
आनंदित, उत्सव जैसी त्यौहारों में
मेरे देह पर नृत्य करती हुईं नलिकाएँ
मुझे रहस्यमयी जादूई अंतरिक्ष बना देती है,
मेरे पुराने स्मृतियों के पिरामिडों में
जिसके आँसूओं पर बुनी हुईं
सभ्यताएँ
पर ब्रह्ममुहूर्त के बेला पर खिला हुआ
गुलमोहर जैसी
चित्रदीर्घा से लौटती ओस पर्ण पर
खिलखिलाते हुए माँ की गोद से शिशु का उतरना मानों
प्रतीची से लौटता
प्राची में सूर्योकार का होना है।
वरुण सिंह गौतम