अभिव्यक्ति
मेरी अभिव्यक्ति की चपलता मुझे कभी नहीं
समझाया कि तुम चुप रहो।
चुप रहना सभ्यताओं के सर्वनाश में बैठा यमराज,
जो बुलाता रहा चुनावी प्रक्रिया से पूर्व गठबंधन करने को
पर मेरा भूतपूर्व स्वप्न मुझे आमंत्रित करता रहा
इस अनिवार्यता की श्रृंखलाओं में
मैं रोज़ स्पाइडर’ज़ वेब में धीरे-धीरे फंसता गया
फंसता गया दुनिया के भ्रमजालों में,
जिस रेत पर धुआं उठाना ही कल्पनामात्र है
इस कल्पनाओं के जद्दोजहद की भयावहता में
तलाशता रहा
अपनी अभिव्यक्ति
जिस पर पनपेंगी मेरी भाषा
अर्थात् मातृभाषा
जिस भूगोल पर मेरा होना था पर
मेरी अस्मिता ( पिता ) की अनुपस्थिति में मेरे जीवन के
कोहरा का हो गया अकस्मात् विराम!
इस विराम के प्रश्न-चिन्ह पर मेरी प्रजाति
जो मुझे ढूंढने निकला साहित्य की लौ का सच
यानि मेरा सच! कविता!
जिसे कल “बेंच और बार” ने प्रस्तुत साक्ष्यों के आधार पर फैसला कर दिया है
‘सज़ा-ए-कत्ल’
मेरी अभिव्यक्ति की मौत!
मौन।
चुप।
वरुण सिंह गौतम