1222 1222 1222 1222

1222 1222 1222 1222
यहां अब भीड़ में कोई हमें रस्ता नहीं देता
है मंज़िल दूर मन को बात ये समझ़ा नहीं देता
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ख़जाने ढूढ़ते हो आप दीग़र बात खंडहर में
सियासत जानता है तू उसे बहका नहीं देता
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करे क्या, पेड़ का हमको नहीं मालूम, तुम बोलो
ये राहें घेरता है बस मगर साया नहीं देता
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हमी तो जानते, कैसी है नीय़त आदमी की अब
यूँ ही बुनियाद को क़मजोर वो बतला नहीं देता
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कहीं चारा-ग़रों से पूछना होगा बता भी दें
दवायें लिख मरीजों को भला धोक़ा नहीं देता
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शरीफ़ों की ये बस्ती है मिले रहते हैं आपस में
कोई भी आदमी दूजे को अब झांसा नहीं देता
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मिला करती ज़माने में उसी को शोहरतें शायद
खु़दा से माँगता है कुछ भी तो पैसा नहीं देता
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हिमाय़त भी ये कैसी है वही जाने बड़ा भाई
ज़मीने बाँटता है और वो टुकड़ा नहीं देता
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वही तो जानता बाज़ीग़री चाहत की अच्छे से
वो अपने इल्म का लेकिन कहीं तड़का नहीं देता
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सुशील यादव दुर्ग (छ.ग.)
7000226712