दोहा संग्रह — परधन की लालसा
1
परधन की जो चाह रखे, मन से निकले ध्यान।
छल से पाया धन सदा, लाये दुख संतान।।
2
लालच भीतर जब बसे, मिटे न तृष्णा प्यास।
जितना पाया और चाहे, बढ़े अधूरी आस।।
3
कपट-बिलावज भूख है, खींचे दिन-रैन।
मन का चैन गँवा दिया, मिला न सुख-संयमैन।।
4
जग में देखा एक ही, नीति-सत्य का सार।
छल से पाया धन कभी, टिके न चिरकाल।।
5
हड़प पराया धन जो करे, समझो मूढ़-अजान।
नैतिकता का मूल गिरे, बुझे विवेक-ज्योतिमान।।
6
लक्ष्मी करती दूर तब, जब लोभ करे निवास।
जो परधन को हाथ लगाए, दुख दे उसका पास।।
7
सच्चा सुख तो कर्म में, श्रम से फल उपजाय।
छल से जो भी धन मिले, वह जीवन भर खाय।।
8
धन के पीछे जो फिरें, नित होई दरिद्र।
माया-मृगतृष्णा बहलावे, मन रहै अधीर।।
9
धन से नहीं प्रेम उपजे, न मन पाए चैन।
छीन-झपट के जो बचे, होय जगत में दैन।।
10
संतोषी धनवान कहे, संतों की यह बात।
छल से पाया धन कभी, दे ना सुख-बरसात।।
11
रहें सदा जो सत्य पर, लोभ न करें मन मांह।
धन-दौलत उसके पगे, बिन बिनती बिन चाह।।
12
बिना परिश्रम जो मिले, टिके न पल-दो-चार।
सुखी वही जग में रहे, जो करे श्रम-संभार।।
13
लोभी मन अंधा बना, देखे नहीं विचार।
धन के पीछे भागता, खोए सब आधार।।
14
लोभिन लहर बहा ले चली, छल-कपट की बाढ़।
जहाँ गया चैन खो दिया, दुख ने मारी आड़।।
15
सदा पराया धन लिए, मन में बढ़े विकार।
सुख की आस अधूरी रहै, मन रहे लाचार।।
16
कपट-धन में जादू नहीं, बस मृगतृष्णा जान।
जितना जोड़े और घटे, बढ़े न कभी निदान।।
17
हरि-रस छोड़ जो खोजते, धन माया की खान।
परधन छीनें जो सदा, पाए न सुख-समान।।
18
जो छले परजन धन लिए, रहे सदा संत्रास।
नींद चुराये चैन भी, बने जीवन उदास।।
19
रहमत उसी पर हो सदा, जो परहित में धन दे।
लोभ न करे परधन का, सुख से जीवन ले।।
20
सच्चा वैभव हो वही, जो श्रम से उपजाय।
निज परिश्रम का फल मिठा, सुख-शांति साथ लाय।।
21
मूल्य कभी न कम करे, करुणा-धर्म-सुधार।
जिसके मन में लालच बसे, वो नर करे हार।।
22
लोभ तजे जो साधुजन, करें सदा उपकार।
परधन को न छू सकें, पावें सुख अपार।।
23
परधन चाह न करिए, यह संतों का सार।
संतोषी मन से रहो, रहे सदा परिवार।।
समापन दोहा
24
छोड़ कपट लोभिन बुरी, धर संतोष विचार।
सत्य कर्म से पाविए, सुख-संतोष अपार।।
कवि
आलोक पांडेय
गरोठ, मंदसौर, मध्यप्रदेश।
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