अश’आर

अश’आर
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मेरे रहगुज़र वो मेरे रहनुमा हैं,
कि मंज़िल से आती सदाएँ हैं उनकी।
अभी जो मेरे पाँव नीचे जमीं हैं,
ख़ुदा की क़सम ये दुवाएँ हैं उनकी।।
है हमको गुमां वो हमें सोचते हैं,
वगर्ना यूँ हिचकी तो आती नही हैं।
मेरे अक्स में वो, नयन नक्श में वो,
यूँ ही उनकी यादें सताती नही हैं।।
मेरे अश्क़ अब बेअसर हो गए हैं,
सताने की फिर भी हैं कोशिश वो करते।
कि मन में है क्या ये बताते नही हैं,
न जाने है कैसी हैं ख़्वाहिश वो करते।।
सफर की है हद कि वो अब तक न लौटे,
कोई बाट जोहे है जन्मो-जनम से।
कि मुद्दत से उनको हैं ढूढें निगाहें,
कहीं मिल वो जाएं जो रहमोकरम से।
कहीं लग न जाए ये दिल मौत से अब,
ज़माना है गुज़रा वो अब तक ख़फ़ा है।
मेरी ज़िंदगी उनके मानिंद गुज़रे,
वो करते जफ़ा हम बताते वफ़ा हैं।।
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कवयित्री शालिनी राय ‘डिम्पल’✍️
आजमगढ़, उत्तर प्रदेश।