क़सम

क़समें जो खाते हैं वादा निभाने की हरदम ,
कितने वादा निभाते है शिद्दत से ता-‘उम्र ,
रुस्वा -ए -ख़ल्क़ का ख़ौफ़ ही नही जिन्हे ,
क्यूँकर निभाए वो क़समें जो खायीं थी उन्हें ,
इंसां की सोच पर फ़ितरत भारी हो रही है ,
बदलते दौर इख़्तियार में कमज़ोरी आ गई है ,
भरोसे के जो पैमाने थे अब बदल गए हैं ,
हम अपनों ही के जाल में बस उलझकर रह गए है ,
क़समों की संदीज़गी अब कम हो गई है ,
फ़क़त फ़रेब – ए – ख़याल का सामान बन रह गई है ।