“राजनीतिक का गंदा खेल”(अभिलेश श्रीभारती)

(राजनीतिक का गंदा खेल)
राजनीति की बिसात पर हुईं फिर एक बेटी की कुर्बानी।
डॉक्टर की चीखें, बन गईं सत्ता की कहानी।।
थिथर जाती हैं हमारी ये कलमें लिखती हुई जुबानी ।।।
इंसाफ की बात करने वाले को ये कैसी राजनितिक की शौक है
बंगाल की राजनीति में गुंडे बेखौफ है।
घाव गहरे हैं, पर मरहम की जगह खेल हो रहा है,
असली मुद्दे दरकिनार कर बस सत्ता का मेल हो रहा है।
खेल होवे का मतलब मुझे पता नहीं, ये क्या सोच कर बोली थी
बेटियों कि आबरू पर ये का सत्ता की नई शाजिशें खेली थी।
सवाल तो बहुत हैं मेरे मन में पर मिलता कोई जवाब नहीं,
हर ओर हैं बस कुर्सी का खेल है, अब जुल्मों का हिसाब नहीं।
कहने को हैं बस बातें बड़ी-बड़ी और वादे ऊँचे-ऊँचे ।
मुझे पता नहीं सत्ता की लालच में लोग गिर सकते हैं इतने नीचे।
पर सच के दामन में अब सच्चाई ही नहीं बची।
खेला होवे की आड़ में यह कैसे खेल रची।
मसला एक बेटी का है, पर इसने मुद्दा बना दिया।
मिलनी चाहिए थी उनको न्याय पर, दोषियों को क्या सजा दिया
आ चुके हैं हम अब एक ऐसी पड़ाव पर।
मरहम की जगह नमक रगड़ना पड़ रहा है मुझे अपनी घाव पर।
जहाँ इंसानियत की हार हो रही हों व राजनितिक रही हो जीत
सत्ता की ऐसी खेलों में, क्या यही है इंसाफ की रीत
कब तक यूँ खेलती रहेगी ये सत्ता की राजनीति?
कब तक बेटियों की आबरू, बनती रहेगी चुनावी रंजिश?
आज वक्त है, जागने का, कुछ कर गुजर जाने का,
बंगाल की इस धरती पर, इंसानियत की लौ जलाने का।
जला ना सकों लौं को तो खुद को जला देना।
मिटा ना सको अन्याय को तो खुद को मिटा देना।।
उठा नहीं सकते आवाजें तो खुद को उठा देना। दबा नहीं सकते दबंगों को तो खुद को दबा देना।।
जला या मिटा ना सके तो कल सत्ता की आग में तुम जला दिए जाओगे।। सत्ता के खिलाफ जब तुम्हारी आवाज मजबूत होगी तो तुम मिटा दिए जाओगे । आवाज नहीं उठा सकते तो तुम सत्ता के द्वारा तुम उठा दिए जाओगे। दबा नहीं सकते तो तुम दबा दिए जाओगे
हां लगता होगा तुम्हें आज मेरी बातें अजीब।।
पूछता हूं बताओ कब तक बन कर बैठोगे ऐसे मुर्दा सजीव।
आप सोचेंगे क्यूं, कैसा मैं शोर कर रहा हूं
तीखी और कड़वे शब्दों का प्रयोग कर रहा हूं।
मिर्ची तो लगेगी ही आपको लेकिन आपकों जगाने हेतु ही मैं कविता पर इतना जोर कर रहा हूं।
~Abhilesh sribharti अभिलेश श्रीभारती~