अंदर से अच्छा होना काफ़ी नहीं…

अंदर से अच्छा होना काफ़ी नहीं…
जब इंसान समझ जाता है कि दुनिया उसे उसके मन से नहीं बल्कि उसके बाहरी रूप और कार्यों से आंकती है, तब वो धीट धीरे खुद को सबसे दूर ले जाने लगता है।
वो जान जाता है कि इस दुनिया में अच्छे होने से ज़्यादा ज़रुट दुनिया के हिसाब से सही दिखना।भावनाएँ कितनी भी सच्ची हों, अगर वो दुनिया की कसौटी खरी नहीं उतरती, तो उनका कोई मूल्य नहीं।ईमानदारी, सरलता, और सच्चाई का वज़न तभी तक होता जब तक वो दुनिया के नज़रिए से उनके मुताबिक़ हो।जब ये समझ आ जाता है कि लोग आपके दिल को नहीं, बि आपकी छवि को देखते हैं।तो इंसान खुद ही सबसे दूर रहने लगता है।धीरे-धीरे वह खुद को एकांत की ओर मोड़ लेता है- क्योंकि पता चल जाता है कि उसकी सच्चाई से किसी को फर्क नह पड़ता।लोग उसे वैसा ही देखना चाहते हैं जैसा उन्हें पसंद है।और फिर वो कहना बंद कर देता है…क्योंकि उसे अहसास हो चुका होता है कि बोलने से भी कुछ समझ नहीं आने वाला।सफाई देने से सच्चाई की कीमत नहीं बढ़ती,
आख़िर दुनिया को सिर्फ़ वही चेहरा पसंद आता है जो उनके हिसाब का हो।
लोगों को आपके मन की गहराई से नहीं, आपके बाहरी दिखावे से मतलब है।”