वियोग साधिका
///वियोग साधिका///
जब उषा भोर हुआ आता है,
कलरव शोर हुआ आता है।
पाकर जाग्रत प्रकृति आंचल ,
चित्त मन घोर हुआ जाता है।।
चिर दीपित आशा मय सुंदर,
सुधा पुंज अरु प्रणय मलय।
उर प्रलंब धृत साध्य साधिका,
प्रिय प्राणमय अंतर किसलय।।
रुपायित मन सपना अपना,
आशान्वित है चिर रत अंतर।
प्रीत संजोयी प्राण संजोया,
विरह वियोग ले वाती सत्वर।।
मौन तूलिका सप्त रंगों की,
मृदु भावों की निस्सीम चितेरी।
सुर धनु सुंदर प्राण प्रणेता,
प्रति पल अंचल निशा घनेरी।।
साध्य संजोया अनिल वेश धर,
सुरभि भरा कमल हार री।
सुमन कोष के पराग बिंदु की,
रजत रंजित सुधा धार री।।
स्वर्ण मेखला के कटि स्पंदन,
जग-वारी जन अतुल सरोवर।
प्रिय प्राणों की प्राण चितेरी,
उज्जवल धवल वसन मनोहर।।
उनके पदचापों की दूरी अनंत,
प्रेम विरह व्यथा जगती री।
भर जाती निश्वासें उलझ उलझ,
यह मन की मृदु हार भरी री।।
अंबर हो जावे मेरा आंचल,
हृदय पटल ब्रह्मांड धरा री।
मैं प्रिय प्रेम की स्वर वादिनी,
शुचि सुंदर विस्तीर्ण परा री।।
आत्म वेदना उठती चंचल हो,
चिर वियोग में भर लेती आह।
अनसुना प्रिय का नीरव अंतर,
अन्तरमन दीप ज्वाल की छांह।।
स्वरचित मौलिक रचना
प्रो. रवींद्र सोनवाने ‘रजकण’
बालाघाट (मध्य प्रदेश)