आत्म दीप की थाह
///आत्म दीप की थाह///दो
दीप की अन्त: ज्वाला यह,
देती है आलोक मुझे।
मैं पथ पर चलता जाता हूं,
प्रीत सजे और दीप सजे।।१०।।
मधु आसव के चिर प्यासे,
विस्तीर्ण गगन में पार धरा से।
अंचल पाकर उर्ण वरा का,
सादर आमंत्रण प्राण परा से।।११।।
उर बसंत अरु विहाग पखेरु,
तेरे प्राणों की यह ज्वाला।
जलती चिर अंतर को पाने,
अनुरंजित है मन का प्याला।।
विहग वरा के मृदु वियोगी,
भास्कर के पथी दीपक दीन।
अनहद स्वर सुनता जाता हूं,
वह शुचि सुंदर कलरव हीन।।
विहाग विहग पथ के रजकण,
उठते नव प्रभंज गगन के।
लेकर आशाओं के घन उठता,
राग सुनाता चिर मिलन के।।
त्वरा तारों की यह कंपित,
स्वर लहरी जो उठती है।
प्रिय प्राणों के विरह वियोग में,
अंतर पा अंतर में चलती है।।
निखिला निखिल ब्रह्मांड इसी में,
स्वर लहरी का आतप पाने।
मधु भरी यह मधु शालाएं जो,
जीती हैं जी कर अनजाने।।
दीप नहीं जलता है यूं कि,
वह देवे आलोक जगत को।
जलता वह असीम मिलन को,
लगता है आलोक विगत को।।
प्रिय मिलन हेतु सुरंजित,
प्रिय साधित सुधा सम पूरित।
जन मन का उत्स अंचल में,
रस घोल सदा मुस्काता प्रेरित।।
क्रमशः
स्वरचित मौलिक रचना
प्रो. रवींद्र सोनवाने ‘रजकण’
बालाघाट(मध्य प्रदेश)