“सदमा” (लेख)

सदमा एक ऐसी वेदना और ऐसा दर्द है जिमें व्यक्ति ख़ुद का नहीं रहता। सुख दुख का अनुभव जहाँ समाप्त हो जाता है..
होठ तो होते है पर मुस्काना भूल जाता है, दिल तो धड़कता है पर सारी की सारी भावनाएं मिट जाती है हर जगह उपस्थित होते हुए भी वो कही भी नहीं होता है….. ,,
अब सवाल यह उठता है ऐसी स्थिति क्यों उत्पन्न होती है एक हंसता खेलता व्यक्ति इस परिस्थिति का शिकार क्यों हो जाता है….. और हम कुछ भी नहीं कर पाते, रंगों से भरी दुनिया क्यों बेरंग सी महसूस हो ने लगती है।
कौन सी ऐसी चोट मिलती है जहाँ जीने की रुचि समाप्त हो जाती है।
सदमा एक तरह का नहीं होता है कभी यह अपनों को खो देने से, तो कभी किसी के दूर जाने से, कभी धोख़ा खाने से तो कभी अपनी कोई अज़ीज अभिलाषा के ना पूरा होने पर व्यक्ति में सदमें की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
और कभी कभी कठिनाइयों से जूझता हुआ वो उस स्थिति में पहुँच जाता है जहाँ उसे सिर्फ और सिर्फ हार नज़र आती है और तब वो परिस्थितियां उसे सदमे में धकेल देती है वो संसार में रहते हुए भी अजनवी बन कर रह जाता है।
एक टूटन एक निराशा एक दर्द उसके साथी हो जाते है जिसे ना तो वो एक्सप्लेन कर पाता है और ना ही उससे बाहर आने की स्थिति में रहता है।
जमाने का ऐसा दर्द जमाने की ऐसी पीड़ा जमाने भर के ऐसे अनुभव व्यक्ति को अंदर से तोड़ मरोड़ कर एकांकी कर जाते हैं की जिंदगी मौत से भी बदतर बनकर रह जाती है।
व्यक्ति क्यों अपने आप को परिस्थितियों के अधीन कर लेता है कि उसका बाहर निकलना ही मुश्किल हो जाता है।
अब बात यहां पर आकर अटकती है कि उस व्यक्ति को
कैसे निकाला जाए सदमा से, जिसको ना तो अपनी सुध बुध रही है और ना ही जीने का उत्साह बाकी बचा है…..
किस तरह से उसके अंदर खुशियों का संचार किया जाए ताकि वह जीने के लिए फिर से एक बार प्रेरित हो सके।
सदमा से ग्रस्त व्यक्ति को अपनों का प्यार अपनों का साथ अपनों का दुलार फिर से वापस दुनिया में ला सकता है, हर उस व्यक्ति का उसके प्रति फर्ज बनता है जो उससे जुड़ा हुआ कि उसकी हर छोटी बड़ी बातों में उसका साथ दे, उसको हँसाने का उसके साथ वक़्त बिताने का उसके अंदर बैठे दर्द और पीड़ा को बाहर निकालने का उपाए ढूंढ उसके अंदर पलती बेबसी को प्यार में बदलने का एक भी मौका नहीं छोड़ना चाहिए, छोटी-छोटी चीजों में उसे प्यार से सहारा देना चाहिए।
परिवार और दोस्त ही सबसे बड़ा संभल होते हैं ऐसे व्यक्ति को वापस उसका हौसला बढ़ाने में।
कभी-कभी व्यक्ति जाने अनजाने गलतियां भी कर बैठता है जिसका उसको बाद में अफसोस होता है और वह तब भी बिखर और टूट कर उस स्थिति पहुंच जाता है जहां उसे लगता है कि मैं यह क्या कर बैठा…..,अब इसका मेरे व्यक्तित्व पर क्या प्रभाव पड़ेगा….लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे इस तरह की बातें उसके दिल में उथल-पुथल मचाती रहती है और फिर वह समाज से कटने लगता है और अकेला जीवन व्यतीत करने लगता है जो उसको सदमा और एकांकीपन की ओर ले जाता है।
उस वक़्त परिवार ही एक ऐसी धूरी होती है जो उस व्यक्ति को संभाल कर उसके कार्यों को नजर अंदाज कर अपने हृदय से लगाकर उसकी सारी कुंठा को बाहर निकाल कर उसे फिर से समाज के परिवेश में प्रवेश करने के लिए प्रेरित और उत्साहित कर सकता है।
मधु गुप्ता “अपराजिता”
22/2/2025✍️✍️