#ज़रा_याद_करो_क़ुर्बानी!

#ज़रा_याद_करो_क़ुर्बानी (21/02/1975)
■आधी सदी पुराने रक्तिम संघर्ष की देन है सरहदी श्योपुर जिला
◆ चार निरीह नागरिकों के बलिदान ने दी थी मांग को आंच
◆ आम जनता ने महज 27 साल में भुला दी लम्बी लड़ाई
◆ पहले कांग्रेस ने दी सौगात, फिर भाजपा ने बदले हालात
【प्रणय प्रभात】
कल 21 फ़रवरी है। देश के हृदय मध्यप्रदेश की सीमा पर स्थित श्योपुर के लिए कभी न भूलने वाली एक तारीख़। एक काला दिन, जिसने बलिदानों की आंच देखी। नतीज़ा पूरे 24 साल बाद उजाले के रूप में मिला। विकास की नई सम्भावनाओं के साथ 1998 में। ज़िले के निर्माण के रूप में। दुर्भाग्य की बात यह रही कि श्योपुर वासियों ने महज 27 साल में उस अध्याय को भुला दिया, जो आज की हर उपलब्धि की भूमिका था। लोगों ने भुला दिया ज़िला निर्माण के लिए चला लंबा जन संघर्ष। साथ ही भुला दिया उन चार निरपराध नागरिकों का बलिदान, जो उक्त मांग को बल देने का आधार बना। अब से 51 साल पहले, 21 फरवरी के दिन। कल उसी काले दिन की 51वीं बरसी है, जो 1975 में श्योपुर की शांत जनचेतना को जागृत करने का सबब बना।
याद दिलाना मुनासिब होगा कि जनसंघर्ष से जुड़े इस खास दिन ना तो कोई आयोजन एक बार की पहल को छोड़ कर बीते 27 सालों में सलीके से हुआ, ना ही लोगों ने ज़िला निर्माण के जटिल संघर्ष और चार निरीह नागरिकों के रक्तरंजित बलिदान को शिद्दत से याद किया। प्रेस क्लब श्योपुर ने एक दशक पहले इस दिशा में एक सराहनीय पहल ज़रूर की। जो अपरिहार्य कारणों से परम्परा नहीं बन सकी। एक वजह लोगों व संगठनों का असहयोग भी रहा। चार जिंदगियों के बलिदान और तमाम लोगों के संघर्ष का 51 साल पुराना वाक़या एक भूली-बिसरी दास्तान बन कर रह गया है। मौजूदा भाजपा सरकार ने बीते साल चुनावी आहट को महसूस कर सभी जिलों के गौरव दिवस आयोजित कराने का निर्णय अवश्य लिया था, जिस पर अमल बहुत प्रभावी नहीं रहा। इसी क्रम में 25 मई को श्योपुर ज़िला एक बार फिर धन्य हो सकता है। बावजूद इसके 21 फरवरी का नामलेवा आज भी कोई नहीं है। सिवाय “न्यूज़&व्यूज” के, जो सालों से इस दिन का स्मरण आम जन को कराने का प्रयास करता आ रहा है। अपना दायित्व मान कर। पूरी कृतज्ञता के साथ।
हालांकि 2023 में विकास-दिवस के आयोजन का मक़सद पूरी तरह चुनाव और राजनीति पर केंद्रित था, तथापि संतोष की बात यह रही कि इस बहाने नौजवान पीढ़ी को ज़िला निर्माण के गुमनाम अतीत से परिचित होने का थोड़ा-बहुत मौक़ा ज़रूर मिला। संभव है इस साल व आगे भी मिलता रहे। निस्संदेह “गौरव दिवस” मनाने के सरकारी फैसले के पीछे बीते साल प्रस्तावित निकाय व पंचायत चुनाव भी बड़ी वजह रहे। जिन्हें इसी साल विधानसभा के चुनावों की वजह से फिर प्रासंगिकता नसीब हुई। अगले साल यह दिवस मनेगा या नहीं, कहना तब भी मुश्किल था, अब भी मुश्किल है। बहरहाल, चुनाव की दस्तक, जिलों के स्थापना दिवस को उत्सव बनने का अवसर ज़रूर दे चुकी है। जो लाजमी भी माना जा सकता है। क्योंकि सत्तारूढ़ पार्टी की कामयाबी कामों से अधिक तामझाम के प्रदर्शन पर टिकी हुई है और उसे अपने इवेंट-मैनेजमेंट के लिए ही पहचाना जाता रहा है।
अब आपको बताते हैं कि आधी सदी पहले के संघर्ष की गाथा आख़िर थी क्या? ज्ञात रहे कि श्योपुर को जिला बनाए जाने की प्रबल मांग वर्ष 1974 में तेज़ हुई थी। जिसके सूत्रधार तत्कालीन विधायक व प्रखर जनसंघी नेता रामस्वरूप वर्मा (सक्सेना) रहे। प्रयोजन के साथ तत्समय गठित संघर्ष समिति के अध्यक्ष वरिष्ठ अभिभाषक रोशनलाल गुप्ता तथा महामंत्री रामस्वरूप वर्मा रहे। जो अब दुनिया में नहीं हैं। उपाध्यक्ष रहे वरिष्ठ अधिवक्ता देवीशंकर सिंहल भी अब दिवंगत हो चुके हैं। इस पीढ़ी से वास्ता रखने वाले पूर्व विधायक सत्यभानु चौहान जिले के लिए हुए जनसंघर्ष के गवाह आज भी हैं। मांग को प्रबल बनाने की कोशिशें तत्समय उपलब्ध संसाधनों के बलबूते जारी रही। जिला निर्माण हेतु गठित आंदोलन समिति को लगा कि सरकार सुनवाई के मूड में नहीं है। लिहाजा वर्ष 1975 में इसे जनांदोलन का रूप देते हुए अनिश्चितकालीन धरना प्रदर्शन सूबात कचहरी के सामने शुरू कर दिया गया।
इसी दौरान 21 फरवरी 1975 को आया वो काला दिन, जो बाद में इस मांग को आंच देने वाला भी रहा। तत्कालीन सरकार से चर्चा के लिए भोपाल गया आंदोलनकारियों का शिष्टमंडल मांग नामंज़ूर होने की मायूसी के साथ श्योपुर वापस लौटा। धरना स्थल पर जमा बड़ौदा व श्योपुर के वाशिंदों में रोष व असंतोष व्याप्त हो गया। धरना ख़त्म करने का निर्णय लिए जाने के साथ डेरे-तंबू समेट लिए गए। आंदोलनकारियों की वापसी के दौरान चौपड़ बाजार स्थित स्टेट बैंक ऑफ इंदौर की शाखा पर तैनात गार्ड को उपद्रव की आशंका हुई। इसी दौरान दो-चार पत्थर बैंक की ओर फेंके गए और जवाब में पुलिस ने गोलीबारी शुरू कर दी। इस गोलीबारी में चार निरपराध नागरिकों गप्पूमल वैश्य, वजीर खां, मुंशी हसन मोहम्मद और जुम्मा भाई का बलिदान हो गया। भीड़ बेकाबू हो गई और गुस्से की आग तत्कालीन न्यायालय व तहसील सूबात कचहरी तक जा पहुंची। फिर लगा दिया गया कर्फ्यू और शुरू हो गया पुलिस का तांडव, जिसकी जद में समूचा शहर आया।
जिला निर्माण आंदोलन में बढ़-चढ़कर भागीदारी करने वाले सर्वोदयी नेता मंगलदेव फक्कड़, समिति के सदस्य रमाशंकर भारद्वाज, कैलाशनारायण गुप्ता, प्रेमचंद जैन, रामबाबू जाटव, शिवनारायण नागर, कैलाश सेन आदि को पुलिस ने घरों में घुस कर बर्बरता के साथ पीटा और लहूलुहान कर दिया। तमाम लोग भूमिगत हो गए। आम जन कर्फ्यू के कारण घरों में क़ैद हो गया। बच्चे दूध को, रोगी दवा को तरस गए। सूबात कचहरी के अभिलेखागार को आग के हवाले कर दिया गया। हालात संभालने में नाकाम तत्कालीन सिटी मजिस्ट्रेट के आदेश पर पुलिस बल तांडव शुरू कर ही चुका था। लोग जानवरों की तरह धुने जा रहे थे। लोहे के टोप लगाए बाहरी पुलिसिए आहट के साथ दरवाज़ों पर लठ बजा रहे थे। त्रासदी व यंत्रणा का मुख्य केंद्र सूबात चौराहा सहित आसपास का हर पुराना इलाका था।
मामला शांत होने के बाद गोलीकांड की जांच के लिए जस्टिस एमएल मलिक की अध्यक्षता में एक आयोग गठित किया गया। आयोग ने तथ्यों व साक्ष्यों की सुनवाई करने के बाद माना कि जिला निर्माण की मांग जायज है। आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाने वालों ने सरकार पर दवाब बनाना एक बार फिर से शुरू कर दिया। श्योपुर आने वाले हरेक राजनेता से लेकर बड़े अधिकारियों तक को ज्ञापन देना इस लड़ाई का शांतिपूर्ण हिस्सा रहा। तमाम बार प्रतिनिधिमंडल राजधानी पहुंच कर प्रदेश के मुखियाओं से मिलते रहे। इसी मांग और दवाब का नतीजा जस्टिस बीआर दुबे की अध्यक्षता में गठित जिला पुनर्गठन बोर्ड के रूप में सामने आया। आंदोलन समिति के सदस्य और तत्कालीन युवा नेता कैलाशनारायण गुप्ता पहला आवेदन लेकर बोर्ड के सामने पहुंचे। इसके बाद बोर्ड के समक्ष मांगों और प्रस्तावों का अम्बार लगता रहा। श्योपुर के विकास के लिए अपेक्षित जिला निर्माण की मांग निरंतर जोर पकड़ती गई।
संभावनाऐं जिले की घोषणा को लेकर बनीं मगर एक कांग्रेसी नेता गुलाबचंद तामोट ने प्रदेश के राजकोष पर भार पडऩे का हवाला देेते हुए याचिका लगा दी। ज़िला निर्माण का रथ बीच रास्ते में अटक गया। कालांतर में क़ानूनी पेचीदगियां एक-एक कर ख़त्म होती चली गईं। जीत जनता के सामूहिक प्रयास और विश्वास की हुई। यहां ध्यान दिलाने वाली बात यह है कि श्योपुर सहित 16 नए जिलों की घोषणा 1992 में तत्कालीन मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा द्वारा की गई थी। ये और बात है कि भाजपा सरकार की इस घोषणा के खिलाफ कांग्रेसी नेता गुलाबचंद तामोट न्यायालय की शरण में चले गए। उनका तर्क था कि इतने जिलों के एक साथ गठन के बाद राजकोष पर भारी दवाब पड़ेगा। बाद में पटवा सरकार की इसी घोषणा को अमली जामा दिग्विजय सरकार ने पहनाया।
वर्ष 1998 में तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने प्रदेश में 16 नए जिलों के गठन का साहसिक फैसला किया। जिला निर्माण की घोषणा 21 मई 1998 को हुई और राजपत्र में अधिसूचना के प्रकाशन के साथ ही 25 मई को श्योपुर जिले का विधिवत लोकार्पण कर दिया गया। श्योपुर जिले के विधि-विधान से वजूद में आने का जोश जनमानस पर हावी रहा। दो-चार साल जिला निर्माण की सालगिरह भी मनाई गई। उसके बाद लोग इस सौगात के लिए हुए लंबे संघर्ष को भूल गए। लिहाजा 25 मई का एतिहासिक दिन आम दिनों की तरह गुजरता चला गया।
अब जिला उम्र के लिहाज से पूरी तरह बालिग़ हो चुका है। यह और बात है कि यथार्थ के धरातल पर इसकी अवस्था एक बिगड़ैल किशोर के जैसी ही है। जिसकी वजह राजनैतिक मूल्यों की गिरावट, प्रशासनिक विवशता और नागरिक भावना की कमी को माना जा सकता है। जिसमें सुधार के आसार आज भी नहीं हैं। आत्म-निर्भरता और आत्म-विश्वास का अभाव ज़िले की रगों में अरसे से समाया हुआ है। वजह राजनैतिक, प्रशासनिक, सामाजिक सभी प्रकार की हैं। जिसे घटाने के प्रयास अब कुछ गति पर हैं।
बात विकास की करें तो भवनों, कार्यालयों, संस्थानों और भौतिक संसाधनों की दौड़ में ज़िला काफी आगे जा चुका है। समृद्ध वनों की बहुलता, कृषि उत्पादन की विपुलता के साथ कला-संस्कृति, साहित्य और पुरातात्विक संपदा ज़िले की पुरानी पहचान को कुछ हद तक बरकरार रखे हुए है। जिसे कूनो नेशनल पार्क व एशियाई सिंहों के नाम पर आए अफ्रीकी व नामीबियाई चीतों ने भी कुछ पहचान व आस दी है। एक्सप्रेस-वे सहित ब्रॉड-गेज की क़वेदो उम्मीदों को आसमान दे रही है। कोड़ी की ज़मीनें करोड़ों के पार जा पहुंची हैं। बावजूद इसके मैदानी धरातल पर जिस तीव्रगामी व नियोजित विकास की दरकार थी उसका क़ायदे से गति पकड़ पाना अब भी बाकी है। जिसमे शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार सहित परिवहन व यातायात के साधनों के मुद्दे आज भी सर्वोपरि हैं। जिनके लिए ज़िला सीमा से सटे पड़ोसी प्रांत राजस्थान पर काफी हद तक अब भी निर्भर है।
पर्यटन विकास के नज़रिए से एशियाई सिंहों के नए घर के रूप में विकसित कूनो नेशनल पार्क ने ज़िले को पहचान ज़रूर दी है। यह अलग बात है कि गुजरात के आधिपत्य वाले शेरों की जगह अफ्रीकी व नानीबियाई चीतों को लाया और बसाया गया है। आने वाले कल में अन्य जिलों को चीता वितरण के सरकारी मंसूबे जिले की नई पहचान को कितना सुरक्षित रहने देंगे, वक्त बताएगा। कूनो नेशनल पार्क के मुख्यालय को ज़िले से छीन लिया जाए तो भी ताज्जुब नहीं किया जाना चाहिए। वैसे भी इसका बड़ा लाभ समीपस्थ ज़िलों को ही मिलना संभावित है। जिसकी वजह घटिया स्तर की राजनीति ही बनेगी।
चिकित्सक व समुचित अमला-विहीन ज़िला चिकित्सालय तथा प्राध्यापकों व स्टाफ की कमी से प्रभावित पीजी कॉलेज के भवनों को विकास मानकर मन बहलाया जा सकता है। केंद्रीय विद्यालय व पॉलिटेक्निक कॉलेज सहित लॉ व गर्ल्स कॉलेज के बाद मेडीकल कॉलेज का भवन निर्माण को विकास मान कर खुशी मनाई जा सकती है। शिक्षार्थ प्रवेश, सेवार्थ गमन की परिकल्पना फिलहाल बेहद मुश्किल है। यह अलग बात है कि इस कड़वे सच पर आए दिन के थोथे कार्यक्रमों का पर्दा डाला जा रहा है। प्रतिभाओं द्वारा अंजाम दिए जाने वाले कारनामों को चालाक संस्थान व उनके धनी-धौरी अपनी उपलब्धि के तौर पर प्रचारित करने में कामयाब हो रहे हैं।
श्योपुर-ग्वालियर के बीच छोटी रेल लाइन का वजूद ख़त्म हो चुका है। सड़क परिवहन सेवा पूरी तरह निजी हाथों में है। बड़ी रेल-लाइन के श्योपुर पहुंचने में और कितने बरस लगेंगे, ऊपर वाला ही जानता है। रेल लाइन के दीगोद (कोटा) तक विस्तार की संभावना फिलहाल टेलिस्कोप से भी नज़र आने को तैयार नहीं है। शगूफे भले ही झांसी-माधोपुर (व्हाया शिवपुरी-श्योपुर) लाइन के छोड़े जा चुके हों। रहा सवाल आर्थिक और भौतिक संसाधनों के विकास का, तो उसके पीछे लोगों की व्यक्तिगत कोशिशें हैं, जो एक कस्बे को नगरी का रूप सतत रूप से दे रही हैं। कुल मिला कर कुछ हुआ है जबकि बहुत कुछ होना अब भी बाक़ी है।
एक आलेख में सभी के नामों और भूमिकाओं का उल्लेख सम्भव नहीं। तथ्यों व घटनाओं के तारतम्य में मामूली त्रुटियां संभावित व स्वाभाविक हैं जिनके लिए अग्रिम क्षमा याचना एक तथ्य संकलक व लेखक के रूप में। वैसे भी लेखन में सुधार और विषय के विस्तार की गुंजाइशें हमेशा बरक़रार रहती हैं। जी यहां भी हैं और आगे भी रहेंगी। बिना नुक़्ताचीनी व पूर्वाग्रह के सुझाएंगे या स्मरण कराएंगे, तो बिना किसी हिचक के तत्काल जोड़ दिए जाएंगे। जो लिखा गया है, बाल-मन की स्मृतियों व सूत्रों की जानकारियों पर आधारित है। नमन् और वंदन प्रत्येक संघर्षी को समभाव, समादर के साथ है। मक़सद क़ुरबानी का स्मरण कराना मात्र है। ख़ास कर उस एक दिवस-विशेष का, जो आज कल की दहलीज़ पर खड़ा है। जय हिन्द।।
👌👌👌👌👌👌👌👌👌
●संपादक/न्यूज़&व्यूज़●
श्योपुर (मध्यप्रदेश)