ग़ज़ल

विरह व्यथा उर भरी बहुत है।
एक प्रेम की घड़ी बहुत है।
जब-जब तुलसी को सींचा है,
नागफनी भी लड़ी बहुत है।
अंर्तमन का तम अकुलाया,
गोद-चाँदनी भरी बहुत है।
आँगन कैसे रहे अछूता,
वायु पश्चिमी चली बहुत है।
बाँट दिशा भूगोल पढ़ाया,
यादगार ये घड़ी बहुत है।
न बन पाया टूटा चश्मा,
सूची उनकी बड़ी बहुत है।
स्वाभिमान से करो किनारा,
उम्र तुम्हारी पड़ी बहुत है।
अपने-अपने राम गढ़ो अब,
अगली पीढ़ी पढ़ी बहुत है।
हासिल यूँ तो पूरा जग है,
भूख पेट की बढ़ी बहुत है।
सर भारी-भारी न कर दे,
पगड़ी तेरी बड़ी बहुत है।
रश्मि ‘लहर’