परिहास

द्रष्टा के भाव इस
सृष्टि को निहारता
दुनियावी प्रपंच से
बेखबर
इस दुनिया को बस
देखता रहा।
समभाव से चलता
सामर्थ्यवश
परोपकार करता
अपना जीवन
खर्च करता रहा।
वस्तुतः
ऐसे परिवेश में
सामाजिक परिधि में
जीवन को कभी भी
गंभीरता से नहि लिया
या यूं कहे कि
जीवन से परिहास किया।
आज निज के द्वितीय व
तृतीय सोपान की
वयसंधि पर खाली
हाथ पाता हूँ
स्वयं का उपहास
उड़ाता हूँ।
देखता हूँ कि मेरा आगत
आज मसखरी के
मूड में है
निर्मेष पलट कर
आज वह
मुझे गंभीरता से
कदापि नहि ले रहा है।
निर्मेष