मंथरा

सुना रही हर व्यथा मंथरा अब मन की
खोल रही कुछ कड़ियाँ अपने जीवन की
जीवन के प्रति मै भी तो अनुरागी थी
राजकुमारी होकर मगर अभागी थी
बीमारी हो गई मुझे कुबड़ेपन की
सुना रही हर व्यथा मंथरा अब मन की
मैने माता बन कर कैकेई को पाला
दासी का ही रूप बना अपना डाला
सेवा उसकी मैने तो आजीवन की
सुना रही हर व्यथा मंथरा अब मन की
प्यार राम को ज्यादा कैकेई करती थी
इसी बात से मै थोड़ा सा डरती थी
समझाया जब बात उठी सिंहासन की
सुना रही हर व्यथा मंथरा अब मन की
हुआ गलत क्या माँग लिए रानी ने वर
सीता के सँग राम गए वनवास अगर
मृत्यु तभी संभव हो पाई रावण की
सुना रही हर व्यथा मंथरा अब मन की
काम सुमित्रा नंदन ने ये नेक किया
लात मारकर मेरा कूबड़ मिटा दिया
बड़ी विकृति थी जो मेरे इस तन की
सुना रही हर व्यथा मंथरा अब मन की
प्राण राम वियोग में दशरथ ने त्यागे
थे बेबस वह भी तो कर्मों के आगे
चढ़ी बेल पर मुझ पर दोषारोपण की
सुना रही हर व्यथा मंथरा अब मन की
चली आ रही वैसे रीत पुरानी है
जीवन कर्मों की ही एक कहानी है
सजा मिली मुझको भी अपने कर्मन की
सुना रही हर व्यथा मंथरा अब मन की
डॉ अर्चना गुप्ता
04.02.2025