1 फरवरी 2025 प्रयागराज महाकुंभ में स्नान तथा दर्शन

1 फरवरी 2025 प्रयागराज महाकुंभ में स्नान तथा दर्शन
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1 फरवरी 2025 को जब हम सड़क मार्ग से लखनऊ से प्रयागराज की ओर रवाना हुए तो मन आशंकाओं से भरा हुआ था । हमारा कार्यक्रम काफी पहले से तय था। सारे रास्ते बंद होने की सूचनाएं थीं । लग रहा था कि भयंकर जाम में फंस सकते हैं। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। सारे रास्ते-भर जाम तो बहुत दूर रहा ,वाहनों की आवाजाही भी इक्का-दुक्का ही देखने में आई। इतनी साफ सड़क तो शायद लखनऊ-प्रयागराज मार्ग पर आम दिनों में भी नहीं होती होगी।
खैर, हम लोग तो पहली बार प्रयागराज गए थे। शहर तो सब एक से होते हैं। लेकिन जिस सात्विक मानसिकता के साथ कुंभ में स्नान के लिए हम जा रहे थे, उसने प्रयागराज क्षेत्र में प्रवेश करते ही हमारे मन को अनेक गुणा सात्विक बनाना आरंभ कर दिया । जब हम रास्ते में कहीं प्रयागराज शब्द लिखा हुआ बोर्ड पर देखते थे , तो मन श्रद्धा से भर उठता था। यही सोचते थे कि हम कितने भाग्यशाली हैं कि 144 वर्ष बाद होने वाले महाकुंभ में पहुंचने का अवसर प्राप्त कर रहे हैं ।
सामान्य तौर पर यातायात को नियंत्रित करने के लिए हमारी कार मेला क्षेत्र में ‘झूॅंसी’ पर पार्किंग में खड़ी करने का निर्देश दिया गया। जाम बिल्कुल नहीं था। हमने ऑटो पकड़ी और चल दिए। ऑटो वाले ने बताया कि 28-29 जनवरी को इस रास्ते पर पैर रखने की भी जगह नहीं थी। हमने पूछा तब तुमने उन दिनों ऑटो कैसे चलाए ? बोला, ऑटो बंद थे। जब पैदल चलने की जगह नहीं थी, तो ऑटो तो चल ही नहीं सकते थे।
हमारा सौभाग्य ! हम सेक्टर 22 “दिव्य कुंभ रिट्रीट” के अपने टेंट-रूम में दरवाजे तक ऑटो से पहुंच गए। यह सोहम् आश्रम से थोड़ा दूर चलकर बॉंई ओर मुड़कर स्थित था। कुछ भी तो पैदल नहीं चलना पड़ा। हमारे साथ दो कारों में कुल नौ सदस्य थे। सभी प्रसन्न थे।
नाम भले ही ‘दिव्य कुंभ रिट्रीट’ हो, ठहरना टेंट में हो, लेकिन मैं तो इसे टेंट-होटल ही कहूंगा। विज्ञान का कैसा चमत्कार है ! गंगा-यमुना के तट पर कितने शानदार टेंट तमाम सुविधाओं के साथ लगाए गए थे।
टेंट-होटल में भोजन करके हम पवित्र नदी में नहाने के लिए चल पड़े। अब यह पैदल का रास्ता था। लेकिन ज्यादा दूर नहीं था। इन रास्तों पर भी भीड़ ज्यादा नहीं थी। किसी सामान्य मेले के समान ही लोगों की उपस्थिति थी। आसानी से स्नान हो गया। थकान नहाने से पहले थी। पहली डुबकी में जो अगर-मगर का भाव था, वह एक डुबकी लगाते ही छूमंतर हो गया । पानी ठंडा था। लेकिन डुबकी लगाकर जब बाहर आए तो ठंड छूमंतर हो गई । फिर तो कई डुबकियां लगाईं । नदी-स्नान की यही विशेषता होती है । नहाने के बाद मेला घूमने का कार्यक्रम बना।
मेले में दोनों और बड़े-बड़े शिविर विभिन्न साधु संतों के लगे हुए थे। सड़कों पर दोनों और रुद्राक्ष आदि की मालाएं बेचने वाले थोड़ी-थोड़ी दूर पर देखे जा सकते थे। नदी के ठीक किनारे पर चंदन लगाने वाले थोड़ी दूर तक ही हमें दिखे। एक स्थान पर ‘चाय-प्वाइंट’ नामक दुकान भी थी। यहॉं चाय की आधुनिक व्यवस्था थी। ठेलों पर भी चाय बिकती हुई दिखती थी। हाथ में टोकरी लेकर चाय बेचने वाले भी हमने देखे।
सौभाग्य से हम जिस समय कुंभ मेला क्षेत्र घूम रहे थे, शाम होने लगी थी। विभिन्न शिविरों में साधु संतों का समूह आरती में निमग्न था। हमें यह दृश्य देखने का सौभाग्य भी मिल गया।
मेले में स्थान स्थान पर कथाएं-प्रवचन भी चल रहे थे। साधु संतों की मंडली एकत्र होकर विचार विमर्श भी करती हुई नजर आ रही थी। अनेक स्थानों पर भक्तजन साधुओं से प्रश्न करते हुए हमने देखे। वे जीवन को सफल बनाने का ज्ञान सीखने के संभवतः इच्छुक रहे होंगे। कुछ साधु संतों के शिविरों में न्यूज चैनलों के पत्रकार भी इंटरव्यू लेते हुए हमें दिखाई दिए। प्रसन्नता पूर्वक गेरुए वस्त्रधारी अपना वक्तव्य न्यूज चैनल के सामने प्रस्तुत कर रहे थे।
नागा साधुओं के शिविरों में फोटो खींचने की मनाही एक आम बात थी। यह न तो फोटो खिंचवाना चाहते हैं और न ही अपने प्रचार के इच्छुक थे। एक नागा साधु ने इशारा करके हम लोगों को अपने निकट बुलाया था। गाइड ने बता दिया था, जब तक यह नागा साधु स्वयं न बुलाएं ;तब तक इनके पास जाना वर्जित होता है । हम लोग गए।
कुछ नागा साधु एक हाथ उठाए हुए की मुद्रा में लगातार बैठे हुए भी हमें दिखे। कुछ नागा साधु काला चश्मा पहन कर बैठे थे। कुछ अंग्रेजी-हेट(टोपी) भी पहनकर बैठे हुए दिखाई दिए। चलते-चलते सावधानीपूर्वक हमने इनके कुछ चित्र जल्दी में खींच लिए ।
संस्कृत भाषा में काफी लंबी आरती होती हुई भी एक शिविर में हमें दिखाई दी। दो पंक्तियों में खड़े होकर करीब पचास साधु यह आरती कर रहे थे। साधुओं के विभिन्न शिविर खूब सुंदर तरीके से सजे हुए थे। अनेक शिविरों के प्रवेश द्वार पर साधुओं की संस्था का नाम भी लिखा हुआ था, लेकिन उन पर कुछ वस्तुओं के विज्ञापन भी हो रहे थे।
कुंभ का मेला तो इतना बड़ा था कि उसका कोई ओर-छोर पकड़ पाना ही संभव नहीं था। जितना घूमे, उससे कई गुना घूमने से रह गया। जहां गए, वहां भी बस सतह पर ही भागम-भाग होती रही। किसी स्थान पर घंटा-दो घंटा आराम से बैठकर साधुओं से वार्तालाप तथा उनके क्रियाकलापों और जीवन शैली को समझने का अवसर कहां मिल पाया ? कुंभ में एक तरह से हिंदू धर्म की सैकड़ों-हजारों वर्षों से चली आ रही विभिन्न आध्यात्मिक धाराएं आकर मिलती है। यह सब धाराएं स्वयं में सुदीर्घ साधना का प्रतिनिधित्व करती हैं। कुंभ तो घूम लिए, लेकिन धाराओं में स्नान करके हम अपने आप को कितना भिगो पाए, इस उपलब्धि पर भी प्रश्न-चिन्ह लगा ही रहा। खैर , कुंभ में यह तो उपलब्धि रही कि आध्यात्म के विभिन्न रूपों और जीवन शैलियों से थोड़ा बहुत परिचय हो सका। यह उपलब्धि भी कोई कम बड़ी बात नहीं रही।
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लेखक: रवि प्रकाश
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