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30 May 2024 · 1 min read

शीतलहर (नील पदम् के दोहे)

शीत लहर कितनी बढ़ी, हुआ नहीं आभास,
ये जादू तब तक मगर, जबतक तुम मेरे पास ।

शीतलहर की शीत से, विचलित मन घबराय,
इस सर्दी में आप क्यों, रूठे हमसे जाय ।

शीतलहर से हो गए, सर्द सभी अनुबन्ध,
जाने क्या-क्या बह गया, जब टूटे तटबन्ध ।

शीतलहर है चल रही, रखियो कोयला पास,
जैसी जितनी ठण्ड हो, उतना लीजो ताप ।

लकड़ी जल कोयला बनी, कोयला बन गया राख़ ,
अब तो आलू निकाल ले, हो गए होंगे ख़ाक ।

शीतलहर में ओढ़ लो, कान ढांक कर लिहाफ़,
मारो चाय की चुस्कियाँ, और पढ़ते रहो किताब।

(c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव “नील पदम्”

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