ये भारत न रहा..

ये भारत न रहा..
वीणापुस्तकधारिणी श्वेतपद्मासना माता ,
निसर्ग नीर गालों पर नयनों से टपकता।
कहती है पुत्र,ये तत्परता ये सजावट कैसी,
जब श्रद्धाभाव नहीं हो, तेरे मन में बसता।
सजाते हो क्यों माता का स्वागत ये द्वार,
सुधि सुगंध पुष्प लेकर,ये मालों की हार।
रखना था मां का सौंदर्य अनुपम अनंत,
तो फिर होता ये कैसा विचार,कैसा विहार।
रक्खे दुग्ध घृत मधु पंचामृत की थाल,
सजा धूपदीप चंदन गंगाजल सम्हाल।
छिपा दारू की बोतल भी संग रखकर,
ये कैसी है अराधना, कैसा ये ख्याल।
तरुण आज नशे में झूमता दिखता दल है,
वर्ष एक बार तो आता, ये माता का पल है।
देखो जब माता के विदाई की वेला आयी ,
ये हुड़दंग अल्हड़पन लगे कितना दुखदाई।
दिखते हैं ढोल जुलूस नगाड़ों के संग डीजे,
झुंड पीकर मत्त मदन मद,मग मस्ती कीजे।
फूहड़पन द्विअर्थी गाने की धुन सुन-सुनकर,
देख उन्मत्त नृत्य, माता का मृदु मन खीजे।
अब रंग गुलाल अबीर का मतलब ना रहा,
वंसत से मन विस्मृत, होली भी हुड़दंग रहा।
माता हृदय पर बस पत्थर रख लो अब तुम,
खोकर संस्कृति का किसलय,ये भारत न रहा
ये भारत न रहा…
Disclaimer:–इस काव्य रचना का
यह उद्देश्य कदापि नहीं है कि
पर्व त्योहारों का कलुषित रुप
दिखाकर भारत की संस्कृति को
बदनाम किया जाए।
लेकिन आज की पीढ़ी के
कुछ युवाओं द्वारा पूजा-अर्चना में
बुरे व्यसनों का संपुट देखने को
मिल रहा है।
भारतीय पूजा अर्चना पद्धति को
पवित्र और श्रद्धा भाव से पूरित
करने के उद्देश्य से यह रचना
सृजित की गई है, इसे व्यापक तौर
पर सभी के लिए न समझा जाए।
मौलिक और स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – ०३/०२/२०२५
माघ ,शुक्ल पक्ष, पंचमी तिथि , सोमवार
विक्रम संवत २०८१
मोबाइल न. – 8757227201