पुस्तक समीक्षा

पुस्तक समीक्षा
पुस्तक का नाम: मशरिकी हूर (नाटक)
लेखक: पंडित राधेश्याम कथावाचक
संपादक: हरिशंकर शर्मा
213, 10 -बी स्कीम, गोपालपुरा बायपास, निकट शांति दिगंबर जैन मंदिर, जयपुर 302018 राजस्थान
मोबाइल 925744 6828 तथा 94610 46 594
प्रकाशक: वेरा प्रकाशन, मेन डिग्गी रोड, मदरामपुरा, सांगानेर, जयपुर 30 2029 (राजस्थान)
मोबाइल 9680 433181
संपादित संस्करण: जनवरी 2025
मूल्य: 249 रुपए
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समीक्षक:रवि प्रकाश पुत्र श्री राम प्रकाश सर्राफ, बाजार सर्राफा (निकट मिस्टन गंज), रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 99976 15451
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स्वतंत्रता आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम एकता का स्वर्णिम प्रष्ठ:नाटक मशरिकी हूर
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मशरिकी हूर आजादी से पहले का लिखा और रंगमंच पर खेला गया नाटक है। यह उर्दू लिपि में लिखा गया था। इसका देवनागरी हिंदी में संस्करण भी प्रकाशित हुआ है। नाटक के सभी पात्र मुसलमान हैं। नाटक में सत्ताधारी पक्ष को खलनायक के रूप में दर्शाया गया है। उसके द्वारा भोगवादी तथा अनैतिक कार्यों से जुड़ाव प्रदर्शित करके जनता के मन में ऐसी सत्ता के विरुद्ध बगावत की भावना को स्वर दिया गया है।
पंडित राधेश्याम कथावाचक ‘हिंदी हिंदू हिंदुस्तान’ के ओजस्वी गायक के रूप में जाने जाते हैं। वीर अभिमन्यु आदि संस्कृति-प्रधान नाटकों के साथ-साथ उनकी कीर्ति का मुख्य आधार उनके द्वारा खड़ी बोली हिंदी में रचित राधेश्याम रामायण है। मशरिकी हूर के लेखन से कथावाचक जी के उर्दू भाषा पर अधिकार की बात जहां एक ओर सिद्ध हो रही है, वहीं दूसरी ओर मुसलमानों के साथ सामंजस्य स्थापित करते हुए स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध संघर्ष को आगे बढ़ाने की उनकी योजना भी सामने आती है। नाटक से स्पष्ट है कि कथावाचक जी मुसलमान के साथ कंधे से कंधा मिलाकर देश की स्वतंत्रता के लिए कार्य करने के इच्छुक थे। उनकी भाषा में उर्दू का पुट प्रारंभ से ही विद्यमान रहा। राधेश्याम रामायण में उन्होंने उर्दू के प्रचलित शब्दों को प्रयोग में लाने से कहीं भी परहेज नहीं किया। उनका मानना था कि भाषा में प्रवाह होना चाहिए। अतः इस कार्य में उर्दू के शब्दों का प्रयोग बाधक नहीं हो सकता। मशरिकी हूर एक काल्पनिक कथा है। इसमें एक मुसलमान शासक के विरुद्ध उसकी ही रियासत का की एक नवयुवती हमीदा पुरुषों के समान वीर वस्त्र धारण करके सत्ता पलटने का संघर्ष संचालित करती है। उसे तलवार चलाना आता है और युद्ध में पारंगत है। अपनी सूझबूझ के बल पर वह लक्ष्य में सफल होती है।
हमीदा के माध्यम से कथावाचक जी ने एक प्रकार से मुस्लिम युवक-युवतियों को अंग्रेजी शासन के विरुद्ध खुलकर संघर्ष करने के लिए न केवल प्रोत्साहित किया अपितु उनके साथ अपनी लेखकीय सहभागिता भी प्रदर्शित की। इससे स्वतंत्रता आंदोलन को मजबूती प्रदान करने में कथावाचक जी का अपना विशिष्ट योगदान कहा जा सकता है। सबसे बड़ी बात यह रही कि मशरिकी हूर में कहीं भी हिंदू-मुस्लिम एकता का नारा नहीं है। लेकिन क्योंकि यह कथावाचक जी की कृति है, अतः स्वाभाविक रूप से इसका प्रभाव हिंदू मुस्लिम एकता के लिए एक मील का पत्थर साबित हुआ। नाटक लिखने में कथावाचक जी माहिर थे। उन्हें मंच पर नाटक खेलने की कला आती थी। मास्टर फिदा हुसैन नरसी जैसे मॅंजे हुए कलाकार एक प्रकार से उनकी ही देन थे। न्यू अल्फ्रेड नाटक कंपनी की अग्रणी प्रतिष्ठा थी। जब उसने कथावाचक जी से उर्दू नाटक की फरमाइश की तो कथावाचक जी ने प्रसन्नता पूर्वक इस कार्य को अपने हाथ में लिया। 1926 में नाटक मंचित हुआ तथा 1927 में प्रकाशित भी हो गया। 1926 के दौर में जहां कुछ लोग भारत विभाजन की दिशा में सोचने लगे थे, वहीं दूसरी ओर पंडित राधेश्याम कथावाचक जी का ‘मशरिकी हूर’ नाटक लिखने का उद्देश्य इस विभाजन को हर हालत में रोकना था । इसके लिए उन्होंने ठेठ मुसलमानी परिवेश, पात्र और भाषा को मन में बिठाकर देशभक्ति का ऐसा रंग जमाया कि अंग्रेज कसमसा कर रह गए और उनके खिलाफ कुछ कर भी नहीं सके। ऊपर से देखने पर नाटक एक काल्पनिक मुस्लिम शासक के विरुद्ध संघर्ष था, लेकिन 1926 का परिवेश साफ-साफ चित्रित कर रहा है कि यह अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध मुस्लिम बगावत को स्वर देने के लिए किया गया महान कार्य था।
नाटक में प्रवाह है। प्रवाह भला क्यों न होता ! यह नाटक केवल पुस्तकों में लिखने के लिए नहीं लिखा गया। यह तो मंच पर खेलने के लिए रचा गया था। इसीलिए संवाद न तो उबाऊ हैं न उपदेशात्मकता लिए हुए बहुत लंबे चौड़े हैं।
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डकैत नहीं, क्रांतिकारी
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कथा के प्रवाह में ही कथावाचक जी ने कुछ अच्छी बातें सत्ता का विरोध करते-करते पाठकों के मन में बैठा दी हैं। प्रत्यक्ष रूप से तो सत्ता के विरुद्ध खड़े देशभक्त डाकू नजर आते हैं। लेकिन कथावाचक जी ने डकैती का जो उद्देश्य और कार्यों की रूपरेखा बताई है, उससे तो यही सिद्ध होता है कि यह डकैती एक महान पुण्य का कार्य है। डकैती के संबंध में एक स्थान पर कथावाचक जी लिखते हैं:
शाह साहब का हुक्म है कि आज शादियाबाद के सुल्तान गजनी खॉं का खजाना चुराया जाए और उस चोरी के माल को उन गरीब और तंग-दस्तों में लुटाया जाए जो सुबह की रोटी खाकर शाम के लिए आसमान की तरफ ताकते हैं।
( पृष्ठ 47 )
काल्पनिक राजा और काल्पनिक प्रजा के माध्यम से अंग्रेजी राज्य में जनता की बगावत को उचित ठहरने वाले अपने नाटक में कथावाचक जी ने एक स्थान पर लिखा है:
गरीबों को बेगार से, दौलतमंदों को नजरानों की मार से, फरियादियों को दुत्कार से और रिआया के रहनुमाओं को हथकड़ी और बेड़ियों के वार से दबाया जाता है। जब इतना अंधेर है तो रिआया क्यों न बगावत फैलाएगी।
(पृष्ठ 62)
उपरोक्त पंक्तियों में गद्य में पद्य का सौंदर्य स्वत: मुखरित होता हुआ देखा जा सकता है।
मशरिकी हूर में कथावाचक जी ने राजा और प्रजा के बीच में जो संघर्ष दिखाया है, उसमें प्रजा की जीत की भविष्यवाणी नाटक के मध्य में ही कर दी है। इसका कारण उन्होंने यह बताया है कि संघर्षशील योद्धा सत्य के लिए संघर्ष कर रहे हैं। नाटक की नायिका हमीदा कहती है:
उसकी तरफ बदी है और हमारी तराफ नेकी। उसकी तरफ जुल्म है और हमारी तरफ रहम। उसकी तरफ शैतान है और हमारी तरफ खुदा। एक बेईमान, ईमानदार पर किसी तरह भी फतेहयाब नहीं हो सकता।
(प्रष्ठ 130)
स्वतंत्रता आंदोलन में क्रांतिकारी विचारधारा उपरोक्त संवाद में परिलक्षित हो रही है
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समाज-सुधार का स्वर
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नाटक मूलतः राजनीतिक है लेकिन इसमें समाज सुधार के बहुत से मुद्दे कथावाचक जी ने उचित ही शामिल किए हैं।
शराब की बुराई के बारे में स्वयं नाटक के खलनायक सुल्तान के मुख से उन्होंने कहलवाया है कि शराब ने मुझे इंसान से एकदम हैवान बना दिया। सारी दुनिया से कहता हूं कि इसको कोई मुंह न लगाए।
(प्रष्ठ 123)
कथावाचक जी ने नौकरों के प्रति मालिकों के अमानवीय व्यवहार को निकट से देखा है । सहज भाषा में उन्होंने नौकरों की पीड़ा को स्वर दिया। मालिकों के दुर्व्यवहार को उजागर किया। नाटक का एक पत्र कमरू जो कि नौकर है कहता है :
धत्तेरी नौकरी की दुम में धागा। चिल्म में तंबाकू रखो तो तवे की शिकायत। हुक्के में पानी डालो तो फटे नैचे का शिकवा। खाने का दस्तरख्वान लगाओ तो हाजिर रहने का झगड़ा। टोपी साफ करो तो जूते की सफाई का गिला। और सब कामों को टंच करके रख दो तो मलिक साहब फरमाते हैं कि खाली क्यों बैठा है? गर्जे कि यह नौकरी की जिंदगी क्या है, एक झमेला ही झमेला है। खुदा जाने यह नौकर रखने का मनहूस रिवाज किस बुरी साअत में पैदा हुआ कि इसका खात्मा ही नहीं होता। (प्रष्ठ 110)
नौकरों की तरफदारी में उपरोक्त सहज, सरल और दिल से निकली हुई बातें सिवाय कथावाचक जी के साहित्य में भला और कहॉं मिलेंगी।
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प्रेम-प्रसंग
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कथावाचक जी को मंच पर खेले जाने वाले नाटक की लोकप्रियता की एक-एक नस का पता है। परदा गिरने से ठीक पहले प्रसंग को एक नया मोड़ देने की पृष्ठभूमि निर्मित करने में वह माहिर हैं। जब नाटक का पहला अंक समाप्त हो रहा होता है, तब वह नाटक की नायिका हमीदा को पुरुष वेश में हमीद के रूप में कुछ इस प्रकार दिखाते हैं कि सुल्तान की बेटी रोशनआरा महल की खिड़की खोलकर हमीदा को देख रही होती है और उसे पर मोहित हो जाती है। नाटक को इस नाटकीयता के साथ नया मोड़ देने से दर्शकों की उत्सुकता और आकर्षक बहुत बढ़ जाता है।
इसी तरह नाटक में संवाद-अदायगी के साथ-साथ कुछ शेरो-शायरी में पात्रों द्वारा विचार व्यक्त करने से भी नाटक का माहौल खुशनुमा हो जाता है। कथावाचक जी ने यह प्रयोग सफलतापूर्वक ‘मशरिकी हूर’ में किए हैं। उदाहरणार्थ रोशनआरा अपनी सहेलियों से शायरीनुमा अंदाज में कहती है:
एक नहीं दो-दो तीरों से दो-दो जगह शिकार किया। एक से वह जल्लाद गिरा और एक का मुझ पर वार किया।।
(प्रष्ठ 102)
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हास्य-रस की छटा
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हास्य रस के बिना मंच पर खेले जाने वाला नाटक अधूरा ही रहता है। कथावाचक जी ने अपने नाटकों में हास्य के प्रसंग अवश्य शामिल किए हैं। कुछ ऐसे संवाद, जिनको सुनकर ही दर्शन हॅंस पड़ें और उनका चित्त प्रसन्न हो जाए कथावाचक जी अवश्य प्रयोग करते हैं। ‘मशरिकी हूर’ में भी नौकर कमरू के माध्यम से वह उसकी मालकिन अल्लामा का सौंदर्य वर्णन इतने मजाकिया अंदाज में करते हैं कि भला कौन पाठक या दर्शक नहीं हॅंसेगा ! कमरू अपनी मालकिन से कहता है:
अपनी खूबसूरती का नक्शा सुनो। आहाहा! तंदूर की तरह मुॅंह लाल, डबल रोटी की तरह फूले हुए गाल, आंखें हैं आम की फॉंकों की मिसाल और नाक है तिकोने की तरह नमकीन माल।
(पृष्ठ 81)
यहां पर भी संवाद प्रस्तुति में हास्य के साथ-साथ काव्य की छटा भी बिखरती हुई देखी जा सकती है।
कुल मिलाकर मशरिकी हूर नाटक को उर्दू में लिखकर तथा समस्त मुस्लिम पात्रों का चयन करके अंग्रेजी राज के विरुद्ध हिंदू-मुस्लिम एकता का जो पुट कथावाचक जी ने दिया, वह उनके ही सामर्थ्य की बात थी। हिंदी और हिंदुत्व के लोकप्रिय रचनाकार की कलम से अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध मुस्लिम जनता के संघर्ष को हिंदू-मुस्लिम एकता का स्वरूप प्राप्त हुआ। यह भारत-विभाजन के खतरों से जूझती हुई परिस्थितियों से लोहा लेने की कथावाचक जी की अपनी ही शैली थी।
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हरिशंकर शर्मा का संपादन
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लगभग सौ साल पुराने नाटक को जनवरी 2025 में हरिशंकर शर्मा ने अपने संपादन में प्रकाशित करके पंडित राधेश्याम कथावाचक जी के योगदान को एक सजग शोधकर्ता के रूप में सटीक स्मरण किया है। उन्होंने यह निष्कर्ष संभवत सही निकाला है कि ‘मशरिकी हूर’ नाटक में काकोरी-कांड का दर्द भी है और अंग्रेजी साम्राज्यवाद के विरोध का स्वर भी है।
संपादक ने नाटक के मर्म तक पहुंचने का जो शोध किया है, वह स्वागत योग्य है। आशा है, स्वतंत्रता आंदोलन को केंद्र में रखकर लिखे गए साहित्य में ‘मशरिकी हूर’ को उचित स्थान अवश्य प्राप्त होगा।
पारसी रंगमंच अब नहीं रहा लेकिन प्रसन्नता का विषय है कि उस शैली को अभी भी मंच पर जीवंत किया जाता रहा है। 1986 में किए गए ‘मशरिकी हूर’ नाटक के मंचन में प्रोफेसर हेमा सहाय सिंह ने नायिका हमीदा के रूप में मुख्य भूमिका निभाई थी। लिखित नाटक को मंच पर खेले गए नाटक के आधुनिक परिदृश्य के साथ जोड़ते हुए प्रोफेसर हेमा सहाय सिंह के हमीदा के रूप में चित्र को पुस्तक के कवर पर अत्यंत भावपूर्ण मुद्रा में प्रदर्शित किया गया है। इसी नाटक के 1926 में मंचन में शामिल रहे कुछ पात्रों यथा फिरोजशा पीठावाला और मास्टर फिदा हुसैन नरसी के चित्र भी पुस्तक के अंत में दिए गए हैं। नाटक की मूल उर्दू पांडुलिपि के कुछ प्रष्ठों के चित्र भी पुस्तक के अंत में संपादक ने दिए हैं। इन सब से कथावाचक जी के साहित्य के प्रति संपादक की खोजपूर्ण दृष्टि तथा अनुराग का पता चलता है।