बीते दिन अच्छे थे

लगता सब कुछ खो सा गया है ,
वो डाकिये का इंतज़ार ,
वो चिट्ठी मिलने की खुशी ,
वो उसको पढ़ने का उत्साह ,
चिट्ठी में समाचार पढ़कर ,
भावनाओं की तरंगों का उतार चढ़ाव ,
अब तो दूरियाँ मिट सी गईं हे ,
हर वक्त एक मशीन सब खबर रखती है ,
फिर भी कुछ न कुछ कमी लगती है ,
भावनाओं की डोर अब कच्ची पड़ने लगी है ,
व्यक्तिगत स्वतंत्रता खतरे में पड़ने लगी है ,
समूह मानसिकता वैचारिक गुलामी की ओर
ढकेल रही है ,
वैचारिक मतभेद बढ़ने लगे हैं , संबंधों में
दरार पड़ने लगी है ,
स्वार्थ प्रेरित चारित्रिक हनन की प्रक्रिया
सर्वमत से हो रही है ,
मिथ्या ,छद्म एवं प्रपंच के मायाजाल विस्तृत हो कपटपूर्ण प्रवृत्ति विकसित हो रही है ,
प्रतिभाएँ दिग्भ्रमित हो विनाशकारी अधोगति ओर
अग्रसर हो रहीं हैं ,
कृत्रिम प्रावधानों से सत्याधार का हनन कर सत्यता की प्रामाणिकता जटिल हो रही है ,
अर्धज्ञान का प्रसार – प्रचार एवं साम्प्रदायिक कट्टरपंथी सामूहिक विचारधारा
विकसित की जा रही है ,
धर्म निरपेक्ष सहअस्तित्व की राष्ट्रीय भावना समाप्त कर धर्मप्रधान राष्ट्र की परिकल्पना
प्रतिपादित की जा रही है ,
लगता है बीते दिन ही अच्छे थे ,
जब हम दिल के सच्चे थे ,
एक दूसरे का दुःख समझते थे ,
जब जाति- धर्म के बंधन से परे
मानव- धर्म को सर्वोपरि रखते थे ,
अब सब कुछ दिवास्वप्न सा हो गया है ,
मानव अपने आप की मरीचिका में खो सा गया है।