मेरे घर की दीवारों के कान नही है
दोस्तों,
एक मौलिक ग़ज़ल आपकी मुहब्बतों के हवाले,,,,!!
ग़ज़ल
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मेरे घर की, दीवारों के कान नही है
ऐसा भी नही कि मेरे मकान नही है।
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हां हम बात सुनते फ़कत अपनो की,
ओरों के सुने राज ऐसे इंसान नही है।
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है आशियाने बहुत चारों ओर हमारे,
तुम देखो यहां कोई शमशान नही है।
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मुहब्बत है जहाँ, जी भर कर रहते है,
ठहरे ना कदम, जहाँ सम्मान नही है।
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होती अकसर, आंखे दो-चार हमारी,
खामोश है मत समझे जुबान नही है।
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कोई लाख हसरत रखे हमे मिटाने की,
होते मगर “जैदि”,पूरे अरमान नही है।
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शायर:-“जैदि”
डॉ.एलसी.जैदिया “जैदि”
बीकानेर।