प्राण मिलन
///प्राण मिलन///
मेरे उर की दीप ज्योति,
जल सतत इस अन्तर में।
तुझको मैं अर्पित करती हूं,
प्राण प्रिय के पगतल में।।
मेरी विरह व्यथा के उत्ताप,
तुझसे रश्मि बनकर झरते हैं।
प्रिय स्पर्श की पुलक पाकर,
मुझ में चिर ज्वाल भरते हैं।।
जाने किस प्रकंप से होकर,
मैं कब उनसे मिल पाऊंगी।
या अनल में लपट बनकर,
भस्म हो उन में मिल जाऊंगी।।
वह कौन सा बंधन मुझे है,
जो रोके रहा है अब तलक।
क्यों न प्राणों को त्याग कर,
सहज ही मैं उन्हें पा जाऊंगी ।।
चिर ज्योति की यह ज्वाल ही,
क्यों नहीं बन जाती रश्मियां।
विस्तीर्ण होकर सारे गगन में,
सहज ही मैं उन्हें पा जाऊंगी ।।
सागर सा वह अथाह अन्तर,
क्या मुझे समा न पायेगा।
नमक सी बन कर मैं वहां पर,
अथाह सागर में मिल जाऊंगी।।
उत्स भरी उर्मियां तो मुझे ही,
प्रिय से मिलने हैं बुलाती।
अब मुझे क्यों ठहरना यहां,
सहज ही मैं उन्हें पा जाऊंगी।।
सागर कभी नहीं रोकता है,
सरित प्रवाह के आवेग को।
उसमें समाकर सरित बनकर
मैं सागर में ही खो जाऊंगी।।
सारा गगन यह थाल उनका,
रवि चांद भी है उनके चितेरे।
अब सहसा ही प्राण बनकर,
दिव्य प्राणों में मिल जाऊंगी।।
स्वरचित मौलिक रचना
प्रो. रवींद्र सोनवाने ‘रजकण’
बालाघाट (मध्य प्रदेश)