प्रेम।
शरीर जर्जर हो चुका था। मांस हड्डियों से चिपक गया था। सुंदरता , मादकता कर्क रोग के दावानल में भस्म हो चुकी थी। जो सिर कभी केशराशि का नंदन वन हुआ करता था वह सर वर्षा न होने के कारण जिस प्रकार धरती रुखी सूखी हो जाती है वैसी हो गई थी।
उन्हीं बचे खुचे केशो में अपनी उंगलियों से उन्हें वह संवार रहा था। सर पर हाथ फेर रहा था।
तभी उसने देखा कि उसकी निस्तेज नयनों से अश्रु झरने लगे , वह परेशान हो उठा , उसने विकल स्वर में पूछा : क्या हुआ , कोई तकलीफ है , डॉक्टर को बुलाऊं?
ज़बाब में सिसकना , हिचकियों में बदल गया। उसने परेशान होकर व्यथित होकर फिर पूछा : क्या बात है , कुछ तो बताओ ?
उसने अपने आंसुओं को नियंत्रित करते हुए कहा : तुम कहो , तुमने मुझे माफ कर दिया।
– पर गलती तो क्या है , पता तो चले।
– तुम बहुत रोमांटिक थे , तुम्हारा रोमांटिशिजम कामुकता की हद तक था , तुम्हारी प्रेम की भूख कभी समाप्त ही नहीं होती थी। मुझे ऐसा लगता था कि तुम मुझसे नहीं मेरी मांसल कमनीय काया से प्रेम करते थे , किंतु अब …….।
– किंतु अब क्या ?
– क्या , शरीर खंडहर में तब्दील हो चुका है , पूरे तन से जैसे बुझ चुकी चिता की राख उड़ रही है , और तुम खंडहर में , उस राख से , राख लपेटे मुझसे उसी तीव्रता के साथ प्यार में हो , मैं सचमुच तुम्हे , तुम्हारे प्यार को नहीं समझ सकी।
वह कुछ नहीं बोला , मुस्कुराता हुए उसी तरह उसके माथे पर हाथ फेरता रहा।
पूरे कमरे में प्रेम की दिव्य अगरबत्तियों की सुगंध पसर गई। एक सुगंधित खामोशी से पूरा कमरा भर गया।
Kumar Kalhans