मैं सोचता हूँ
मैं सोचता हूँ
और सोचकर डरता हूँ
डरता हूँ और डरकर लिखता हूँ
लिखता हूँ फिर डरता हूँ
डरना कवि का धर्म नहीं
जानता हूँ और जानकर डरता हूँ
लिखने से डरता हूँ
क्या लिखूँ तेरी आँखों के बारे में
क्या रुखसार है मौसमपसंद
जीवन में आना तेरा
वक्त का ठहरना हो जाय
मगर ठहरने से डरता हूँ
क्या तुम मेरे साथ ठहर पाओगी
ये होंठ जो कुमुद के पल्लव जैसे हैं
जो खिलने और खुलने से ज्यादा
संकुचित होने पर पसंद हैं मुझको
मेरे साथ इनको लोच देकर
मुकुराओगी साथ – साथ
एक सा
और सहसा ठिठक जाता हूँ
घबराकर , गश खाकर गिर
जाना चाहता हूँ
कि मेरे इरादा को बेइरादा
तुमने एक्सेप्ट कर भी लिया तो
फायदा क्या है इसका।
यही कि मेरी उम्मीदें तुमसे
यकायक बढ़ जाएँगी और
अनायास अल्फाजों में आ जाएगी
तब्दिलियाँ और इक दिन
बेवक्त मैं बेखबर सा होऊँगा कहीं
खुशनुमा रंग से तुम पर गजलें गढ़ता
और तुम कहोगी आकर
सुनो मेरे शायर
अब मैं इस रिश्ते को करती हूँ
यहीं खत्म लगभग
मैं एक स्त्री हूँ
न कि फकत जिस्म या
केवल औरत
मैं रोकूंगा तुम्हें
मगर क्या मैं तुम्हें रोक पाऊँगा
समझाने और समस्या समझने की
अनथक कोशिश करूंगा
मगर समझ पाऊँगा क्या
शायद , ऐसा नहीं होगा
होगा तो क्या होगा ।
क्या होगा सोचता हूँ
और डरता हूँ।
डरता हूँ और डरकर लिखता हूँ
लिखता हूँ फिर डरता हूँ
डरना कवि का धर्म नहीं
जानता हूँ और जानकर डरता हूँ