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16 Feb 2024 · 1 min read

अनुभूति

अनुभूति

दिवस के अवसान की
बेला आ रही है,
धीरे धीरे …..
प्रतिबिंबित हो रही है चेहरे पर,
चमक जो थी कभी इन आँखों में
वीरानी नजर आ रही है -अब,
बिछड़ने और टूटने का…..
दिवस के अवसान की बेला आ रही है
धीरे… धीरे….,
कांतिहीन ,निष्प्रभ से चेहरे–जो,
बयां कर रहे हैं अपनी कहानी
बीते हुए कल और आते हुए कल की,
दिवस के अवसान की बेला आ रही है
धीरे… धीरे…..,
धंसे हुए गाल,समय की मार और
अनुभव की असंख्य लकीरें लिए
भटक रहा है ….वह,
अपनों से दूर ,रहने को मजबूर
नियति के क्रूर हाथों,
वृद्धाश्रम के एकांत वास में,
दिवस के अवसान की बेला आ रही है धीरे…..धीरे ……||

शशि कांत श्रीवास्तव
डेराबस्सी मोहाली, पंजाब
©स्वरचित मौलिक रचना

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