हमें हमेशा यह बताया जाता है कि क्या सोचना है और क्या नहीं सो
हमें हमेशा यह बताया जाता है कि क्या सोचना है और क्या नहीं सोचना है। किताबें, शिक्षक, माता-पिता, और हमारे आस-पास का समाज हमें यह सिखाते हैं कि क्या सोचना चाहिए, लेकिन वे कभी यह नहीं सिखाते कि कैसे सोचना चाहिए। यह जानना कि क्या सोचना है, अपेक्षाकृत आसान है, क्योंकि बचपन से ही हमारे मन को शब्दों, वाक्यांशों, स्थापित दृष्टिकोणों और पूर्वाग्रहों के माध्यम से ढाला जाता है।
मुझे नहीं पता कि आपने यह देखा है या नहीं कि ज्यादातर बुजुर्गों का मन कितना स्थिर होता है; वह मिट्टी की तरह साँचे में ढल जाता है, और इस साँचे को तोड़ना बहुत कठिन हो जाता है। मन को इस तरह ढालना ही उसका अनुशासन है।
जब मन ढला हुआ हो, तो वह कभी स्वतंत्र नहीं हो सकता। ऐसे मन के लिए अपनी शर्तों से मुक्त होना और उससे आगे जाना बहुत कठिन होता है, क्योंकि यह अनुशासन न केवल समाज द्वारा बल्कि स्वयं मन द्वारा भी थोपा जाता है। आप अपने अनुशासन को पसंद करते हैं, क्योंकि आप उससे आगे जाने का साहस नहीं करते।