मर्दों की आँखो में ठहरे मैखाने को
मर्दों की आँखो में ठहरे मैखाने को
कभी किसी ने गौर से नहीं देखा
उनके चेहरे के हज़ारों …. सुंद्र तिल
कभी किसी तारीफ के हकदार नहीं हुए
और …! और नही पहुँची प्रेम कविताएँ कभी उनके सिरहाने
पुरुषों के कांधे कितने भी मज़बूत क्यूँ न हों पर
सबके सामने खुलकर रो लेने की आज़ादी उन्हें आज भी नहीं
मुझे इस दोहरे समाज से कुछ कहना है…
‘जैसे नए पारिजात को खिलने के लिए इक रात चाहिए
वैसे ही पुरुषों को भी रोने कि लिए इक साथ चाहिए!’