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25 Dec 2024 · 13 min read

हिन्दी साहित्य के सिरमौर दलित लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि / मुसाफ़िर बैठा

साहित्य के लेजेंडरी और लोकप्रिय दलित लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि अब स्मृतिशेष हैं। कैंसर रोग ने उन्हें असमय ही लील लिया, जबकि साहित्य के लिए उन्हें अब भी बहुत कुछ करना बाकी था। लगभग 60 की उम्र में ही उनका जाना उनकी साहित्यिक व अन्यान्य दाय से समाज का बहुत अधिक ही वंचित रह जाना है!

ओमप्रकाश वाल्मीकि हिन्दी के अब तक पहले और अन्तिम ऐसे दलित लेखक हैं जिन्हें गैरदलित हिन्दी पाठक एवं लेखक भी सर्वाधिक जानते-मानते हैं।

हिन्दी की दूसरी सबसे पहले प्रकाशित (वर्ष सन् 1997) और अब तक सर्वाधिक चर्चित दलित आत्मकथा उनकी ‘जूठन’ ही है। ’जूठन’ ने ही उन्हें अपार शोहरत दी, उनको एक तरह से सेलेब्रिटी बनाया। एक अन्य बेहद महत्वपूर्ण हिन्दी दलित लेखक मोहनदास नैमिशराय के ‘अपने अपने पिंजरे’ (प्रथम भाग, प्रकाशन वर्ष 1995) पहला हिन्दी दलित आत्मकथन होने का गौरव प्राप्त है, हालांकि लोकप्रियता एवं महत्त्व पाने में मामले ’जूठन’ का जोड़ नहीं। कारण, कि जिस दुःख-दर्द की बेधकता व पैनापन से, गहराई, गुरुत्व एवं संजीदगी से, परिणाम से, जिस भाषाई कसावट एवं प्रांजलता से वंचना का बयान ‘जूठन’ में लिपिबद्ध हो आता है वह ‘अपने अपने पिंजरे’ में नहीं। अलबत्ता, डॉ. तुलसी राम की इधर आयी आत्मकथा ‘मुर्दहिया’ (प्रकाशन वर्ष 2010) एवं ‘मणिकर्णिका’ (प्रकाशन वर्ष 2014) ने खास, द्विज हलके में कथित ऐतिहासिक औपन्यासिक शिल्प एवं भाषायी कसावट, एवं सबसे बढ़कर द्विजों के प्रति अपने नरम व लगभग अनालोचनात्मक रवैये को लेकर काफी नाम कमाया है।

‘जूठन’ सम्भवतः किसी दलित लेखक की ‘अपने अपने पिंजरे’ के बाद प्रथम आत्मकथा ठहरती है जो बड़े हिन्दी प्रकाशक से छपकर आयी थी। हालाँकि रोचक यह भी है कि बड़े प्रकाशनों ने दलित आत्मकथाओं को प्रायः उपन्यास बता कर छापा है। प्रकाशक ने शायद अनुमान किया कि आत्मकथा की अन्तर्वस्तु को बतौर सत्य घटना सम्भवतः पाठक नहीं पचा सकेंगे। ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं, “समाज में स्थापित भेदभाव की जड़ें गहरी करने में साहित्य का बहुत बड़ा योगदान रहा है। जिसे अनदेखा करते रहने की हिन्दी आलोचकों की विवशता है। और उसे महिमामंडित करते जाने को अभिशप्त हैं। ऐसी स्थितियों में दलित आत्मकथाओं की प्रामाणिकता पर प्रश्न चिह्न लगाने की एक सोची-समझी चाल है। बल्कि यह साहित्यिक आलोचना में स्थापित पुरोहितवाद है जो साहित्य में कुंडली मारकर बैठा है। हिन्दी साहित्य को यदि लोकतान्त्रिक छवि निर्मित करनी है तो इस पुरोहितवाद और गुरुडम से बाहर निकलना ही होगा। यदि वह ऐसा नहीं करता है तो उस पर यह आरोप तो लगते ही रहेंगे कि हिन्दी साहित्य आज भी ब्राह्मणवादी मानसिकता से भरा हुआ है। अपने सामन्ती स्वरूप को स्थापित करते रहने का मोह पाले हुए है।”

‘जूठन’ का कई भारतीय एवं विदेशी भाषाओं सहित अंग्रेजी में भी अनुवाद हो चुका है।

17 नवम्बर, 2013 को वाल्मीकि जी ने देहरादून में अन्तिम साँस ली और, दलित साहित्य के एक स्थापित आलोचक एवं दलित साहित्य की ‘अपेक्षा’ नामक त्रैमासिक पत्रिका के सम्पादक डॉ. तेज सिंह भी इस बीच 15 जुलाई, 2014 को हमारे बीच नहीं रहे। यह अजीब संयोग है कि ‘अपेक्षा’ का उनके सम्पादन में आया संयुक्तांक 46-47 (जनवरी-जून 2014) ओमप्रकाश वाल्मीकि की मृत्यु के बाद का पहला अंक है जिसमें वाल्मीकि पर विशेष सामग्री है। दुखद यह है कि अंक डॉ. तेज सिंह के सम्पादन का आखिरी अंक साबित हुआ है। इस अंक में 12 पृष्ठों में हमेशा की तरह लम्बा लिखा गया सम्पादकीय है, पर इस बार खास बात यह है कि इसकी पूरी अन्तर्वस्तु ओमप्रकाश वाल्मीकि के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर है और आश्चर्यजनक रूप से घोर नकारात्मक है। डॉ. तेज सिंह की ‘ओमप्रकाश वाल्मीकि की रचना-प्रक्रिया’ शीर्षक इस सम्पादकीय की शुरुआत वाल्मीकि की मृत्यु की सूचना से होती है और अन्त श्रद्धांजलि से। सम्पादकीय बड़ा ही विस्फोटक है। पक्षपातपूर्ण एवं आक्षेपात्मक है। वाल्मीकि के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को खारिज करने में डॉ. तेज सिंह यहाँ इतने आक्रामक एवं आक्रोशित जान पड़ते हैं कि सहसा विश्वास नहीं होता कि ये वही मृदुभाषी एवं हरदम अपने होठों पर मधुर मुस्कान रखने वाले शख्स हैं। दलित साहित्य के कुछ धारणात्मक एवं अन्य प्रश्नों पर इन दोनों के आपसी मतभेद इस स्तर तक कटु हो चले हैं, सम्भवतः सामान्य जनों को इसका पता नहीं होगा। कोई गैरदलित अथवा जानी दुश्मन भी क्या इस टक्कर का वाल्मीकि-विरोध अंकित कर सकेगा ? अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि डॉ. तेज सिंह यहाँ काफी डरपोक साबित होते हैं। कारण कि अब वाल्मीकि किसी प्रत्युत्तर अथवा सफाई देने के लिए जीवित नहीं हैं, और इस स्थिति को तेज सिंह ने अपनी भड़ास निकालने का कदाचित सुअवसर माना ! ओमप्रकाश वाल्मीकि एवं डॉ. तेज सिंह के पाठकों एवं चाहने वालों के लिए यह भी अब अवसर नहीं रहा कि वे इन दोनों में से किसी से इस भिड़त की बाबत कोई सवाल-जवाब कर सके। डॉ. तेज सिंह ने वाल्मीकि के व्यवहार कुशलता की तो काफी कुछ प्रशंसा अपने इस सम्पादकीय में कर दी है पर उनके रचनात्मक अवदान के प्रशंसा-पक्ष में एक भी शब्द नहीं खरचा है, जबकि उन्हें खारिज करने में आलोचनाओं की झड़ी लगा दी है। डॉ. तेज सिंह ने वाल्मीकि को ‘दलित’ शब्द के इतिहास का ज्ञान न होने से लेकर उनके भाजपाई एवं संघी होने जैसे आरोप भी मढ़े हैं एवं अपने तरीके से उन्हें हिन्दुत्ववादी एवं जातिवादी तक साबित कर दिखाया है! उनका एक आरोप इन शब्दों में भी आता है- “वाल्मीकि भाजपा या आर.एस.एस. से अपने राजनीतिक सम्बन्धों को जीवन भर छुपाते रहे लेकिन उनकी मृत्यु के बाद हुए कर्मकांड ने जाहिर कर दिया।” इसी सम्पादकीय में एक जगह तेज सिंह यों टिप्पणी करते हैं- “क्या खुद वाल्मीकि जातिवादी चेतना के ब्राह्मणवादी संस्कारों से मुक्त हो पाये थे? ‘बैल की खाल’, ‘सलाम’, ‘बपतिस्पा’ और ‘अम्मा’ आदि कहानियों में वाल्मीकि के ब्राह्मणवादी संस्कारों की एक झलक मिल जायेगी।” हालाँकि अंक में वाल्मीकि पर जो अन्य सामग्रियाँ दी गयी हैं वे डॉ. तेज सिंह के सम्पादकीय की तरह विद्वेषपूर्ण न होकर सन्तुलित विचार रखती प्रतीत होती हैं। यहाँ एक और बात ध्यान देने योग्य है कि जहाँ ‘दलित साहित्य अथवा साहित्यकार’ शब्द को डॉ. तेज सिंह ‘अम्बेडकरवादी साहित्य अथवा साहित्यकार’ पद से प्रतिस्थापित करने के पैरोकार हैं, अंक की वाल्मीकि से अलग विषय की सामग्री में भी दलित साहित्य अथवा साहित्यकार जैसे शब्दों से ही काम चलाया गया है। इससे आभास होता है कि ‘अपेक्षा’ के उक्त अंक लेखक भी डॉ. तेज सिंह की ’अम्बेडकरी-जिद’ के साथ होते नहीं दीखते। अब तक का कुल जमा हासिल यही है कि डॉ. तेज सिंह ‘दलित साहित्य’ की धारणा को ‘अम्बेडकरवादी’ साहित्य में तब्दील करने में नाकाम ही रहे। ‘आत्मकथा’ शब्द को ’स्वकथन’ अथवा ’स्ववृत्त’ कह कर वैज्ञानिक सोच से तालमेल करवाने, आत्मा विषयक धार्मिक अंधविश्वास से निकालने के अपने अभियान को भी डॉ. तेज सिंह सफल नहीं बना सके। दरअसल, डॉ. तेज सिंह की ये ‘मौलिक’ धारणाएँ उसी तरह स्वीकृति नहीं पा सकीं जैसे कि अभी ‘ओबीसी साहित्य’ अथवा ’बहुजन साहित्य’ की टटका एवं अलबेली धारणा अस्तित्व पाने के लिए संघर्षरत होकर भी उत्तरोत्तर प्राणहीन होती जा रही है। और, डॉ. तेज सिंह की इन धारणाओं का सबसे मुखर एवं असरदार विरोध किसी गैरदलित से नहीं बल्कि ओमप्रकाश वाल्मीकि की तरफ से आया था।

इस बाबत वाल्मीकि कहते हैं- “हिन्दी दलित साहित्य में कुछ ऐसी बहस करते रहने की परम्परा विकसित की जा रही है जिसका कोई औचित्य नहीं रह गया है। ये बहसें मराठी दलित साहित्य में खत्म हो चुकी हैं। लेकिन हिन्दी में इसे फिर नये सिरे से उठाया जा रहा है। वह भी मराठी के उन दलित रचनाकारों के सन्दर्भ से, जो मराठी में अप्रासंगिक हो चुके हैं। जिनकी मान्यताओं को मराठी दलित साहित्य में स्वीकार नहीं किया गया, उन्हें हिन्दी में उठाने की जद्दोजहद जारी है। मसलन ‘दलित’ शब्द को लेकर, ‘आत्मकथा’ को लेकर। मराठी के ज्यादातर चर्चित आत्मकथाकार, रचनाकार, ‘दलित’, शब्द को आन्दोलन से उपजा क्रान्तिबोधक शब्द मानते हैं। बाबूराव बागुल, दया पवार, नामदेव ढसाल, शरणकुमार लिंबाले, लोकनाथ यशवंत, गंगाधर पानतावणे, वामनराव निम्बालकर, अर्जुन डांगले, राज ढाले आदि। इसी तरह आत्मकथा के लिए ‘आत्मकथा’ शब्द की ही पैरवी करनेवालों में वे सभी हैं जिनकी आत्मकथाओं ने साहित्य में एक स्थान निर्मित किया है। चाहे शरणकुमार लिंबाले (अक्करमाशी), दयापवार (बलूत), बेबी कांबले (आमच्या जीवन), लक्ष्मण माने (उपरा), लक्ष्मण गायकवाड़ (उचल्या), शांताबाई कांबले (माझी जन्माची चित्रकथा), प्र.ई. सोनकांबले (आठवणीचे पक्षी), ये वे आत्मकथाएँ हैं जिन्होंने दलित आन्दोलन को मजबूत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निर्मित की। इन आत्मकथाकारों को ‘आत्मकथा’ शब्द से कोई दिक्कत नहीं है। लेखकों को कोई परेशानी नहीं है। यही स्थिति हिन्दी में भी है। लेकिन हिन्दी में ‘अपेक्षा’ पत्रिका के सम्पादक डॉ. तेज सिंह को ‘दलित’ शब्द और ‘आत्मकथा’ दोनों शब्दों से एतराज है। उपरोक्त सम्पादक को दलित आत्मकथाओं में वर्णित प्रसंग भी काल्पनिक लगते हैं। कभी-कभी तो लगता है कि ये सम्पादक महोदय दलित जीवन से परिचित हैं भी या नहीं? क्योंकि दलित आत्मकथाओं में वर्णित दुख-दर्द, जीवन की विषमताएँ, जातिगत दुराग्रह, उत्पीड़न की पराकाष्ठा, इन महाशय को कल्पनाजन्य लगती है।”5

ऐसा भी नहीं है कि वाल्मीकि की आलोचना नहीं हो सकती। वे एकदम से पाक-धवल नहीं हो सकते, दुनिया में कोई नहीं हो सकता ऐसा। मगर मूल्यांकन का एक तरीका होता है। डॉ. तेज सिंह ने तो यहाँ बिल्कुल डॉ. धर्मवीर की ही ध्वंसात्मक लाइन पकड़ ली लगती है। हमें पता है कि स्त्री विरोध, प्रेमचन्द पर हमले एवं कबीर के द्विज आलोचकों पर एकतरफा प्रहार करके कैसे डॉ. धर्मवीर ने अपने शोध, श्रम एवं महत्त्व को खुद ही चोट पहुँचायी। धर्मवीर के कबीर पर बड़े काम को भी सो कोल्ड मुख्यधारा के द्विज भाव नहीं दे रहे, उनकी मोटी आत्मकथा ‘मेरी पत्नी और भेड़िया’ को दलित साहित्य में भी बहुत मान-महत्त्व नहीं दिया जाता है तो कारण है उनका अतिरेकी चिन्तन, गुड़ को भी गोबर की लपेट से उपेक्षणीय सा बना देना। कबीर को दुनिया के सामने प्रस्तुत किये जाने की जिस द्विज-भित्ति पर डॉ. धर्मवीर ने अपना शोध कार्य टिकाया है उसको एकदम से खारिज करते उनका चलना सही नहीं हो सकता। हाँ, द्विज आलोचकों एवं साहित्यिकों द्वारा डॉ. धर्मवीर के कबीर सम्बन्धी एवं अन्य आलोचनात्मक कार्यों को महत्त्व न देना भी कम बड़ा अपराध नहीं है और वह भी बराबर की प्रतिक्रियात्मक कार्रवाई मात्र है। डॉ. धर्मवीर के लेखन से काफी कुछ काम का चुना–बीना जा सकता है।
सवर्णआलोचकों ने डा. धर्मवीर के कामको प्रायःइग्नोरकियाहै। जैसे, ‘बीसवीं सदी की हिन्दी आलोचना’ नामक अपने लेख में बिहार मूल के हिन्दी आलोचक रेवतीरमण ने बीसवीं सदी के अन्त में क्रियाशील आलोचकों का जिक्र किया है वहाँ डॉ. धर्मवीर जैसा जरूरी नाम गायब है। रेवतीरमण कहते हैं, “कबीर से बड़ा आलोचक अभी तक नहीं हुआ है।” और, मेरा मानना है कि कबीर का डॉ. धर्मवीर से बड़ा आलोचक अभी तक नहीं हुआ है। अलबत्ता, कबीर के द्विज आलोचकों हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ. रामकुमार वर्मा, डॉ. मैनेजर पाण्डेय, डॉ. शुकदेव सिंह, डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल से उन्होंने जो लट्ठम-लट्ट्ठा किया है वह एकदम से एकतरफा भी नहीं है, दम है उसमें। डॉ. धर्मवीर की कबीर शृंखला की आलोचना पुस्तकें सन् 2000 के शुरुआत में ही आनी शुरू हो गयी थीं, वह भी हिन्दी के एक बड़े प्रकाशन, वाणी प्रकाशन से। और इससे पहले उनके डॉ. तेज सिंह से भी वाल्मीकि के प्रति दुराग्रह पालने की भयावह चूक हो गयी है। निश्चय ही वाल्मीकि पर अपनी तोहमतों की इस बौछार के साथ ही तेज सिंह भी तो इस दुनिया से प्रयाण तो नहीं ही करना चाहते रहे होंगे। यदि उनकी मौत अचानक से नहीं होती तो शायद, कभी न कभी अपने इस एकतरफा एवं पक्षपाती मूल्यांकन के लिए वे साहित्य जगत एवं वाल्मीकि के समक्ष अपनी खेद, अपनी झेंप प्रकट जरूर करते !

डॉ. तेज सिंह की कलम से वाल्मीकि की मार्क्सवाद की कच्ची-पक्की समझ पर एक रोचक टिप्पणी हम उनके आलेख ‘मार्क्सवाद और दलित साहित्य’ में देखते हैं। वे अनेक दलित साहित्यकार एवं कवि को अम्बेडकरवाद, मार्क्सवाद एवं समाजवाद की कच्ची समझ का साबित करते हुए किंचित ओमप्रकाश वाल्मीकि को भी इस मोर्चे पर घेरते हुए दीखते हैं, मगर कुछ सावधानी बरतते हुए इस तरह, दलित साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि भी मार्क्सवादियों की सामाजिक क्रान्ति के नारे को सिर्फ दिखावा मानकर आलोचना करते हैं कि ‘ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं के कहकहे/सफेदपोश नेताओं के भाषण/चौराहे पर गाँधी का पुतला/गलियों में/ समाजवाद का नारा/मेरा मन बहला रहा है’ (सदियों का सन्ताप) क्योंकि देश के कम्युनिस्ट सत्तर-अस्सी सालों से समाजवादी क्रान्ति का नारा बुलन्द किये जा रहे हैं पर सैकड़ों पार्टियों में बँटा वामपन्थी आन्दोलन बिखराव के कगार पर खड़ा है और अपना जनाधार लगातार खोता चला जा रहा है। लेकिन अपने अगले कविता-संग्रह ‘बस्स! बहुत हो चुका’ में ओमप्रकाश वाल्मीकि मार्क्सवादियों को सकारात्मक नजरों से देखते हैं। जैसा कि लेख में शुरू में डॉ. अम्बेडकर को उद्धृत करते हुए लिखा है कि ‘हिन्दू मार्क्सवाद के वर्ग-संघर्ष से बहुत भयभीत रहता है और सबसे ज्यादा विरोध भी वही करता है।’ इसलिए वर्णवादी हिन्दू सोवियत संघ के विघटन पर बहुत खुश नजर आता है। उसी सच्चाई की ओर ओमप्रकाश वाल्मीकि इशारा करते हैं कि ‘वर्ण-व्यवस्था को तुम कहते हो आदर्श खुश हो जाते हो/साम्यवाद की हर पर/जब टूटता है रूस/तो तुम्हारा सीना छत्तीस हो जाता है क्योंकि मार्क्सवादियों ने/छिनाल बना दिया है/तुम्हारी संस्कृति को।’ (कभी सोचा है)

एक प्रसंग हम प्रेमचन्द विरोध का लें, जिससे ओमप्रकाश वाल्मीकि भी प्रकट रूप से जुड़ते हैं। तेज सिंह ‘प्रेमचन्द के दलित’ नामक अपने लेख में कहते हैं कि प्रेमचन्द ने ब्राह्मण एवं चमार को एक-दूसरे के पक्के विरोधी यानी जानी दुश्मन के रूप में आमने-सामने रखकर विकसित किया है। इसलिए इन दोनों समुदाय के लोगों ने प्रेमचन्द पर गम्भीर आरोप लगाये हैं कि उन्होंने उनको बुरी नीयत और गलत तरीके से अपने साहित्य में चित्रित किया है। डॉ. तेज सिंह कहते हैं, “यह सब प्रेमचन्द के समय में ही उनके सामने शुरू हो गया था। प्रेमचन्द ने खुद इस सम्बन्ध में कई जगह लिखा है।” डॉ. तेज सिंह आगे लिखते हैं जिसमें वाल्मीकि का जिक्र यों आता है, “डॉ. विमलकीर्ति ने अक्टूबर 1993 में नागपुर शहर में ‘अखिल भारतीय हिन्दी दलित लेखक साहित्य सम्मेलन’ का आयोजन करके दलित लेखकों को विचार-विमर्श का अच्छा अवसर दिया, इस अवसर का लाभ उठाते हुए ओमप्रकाश वाल्मीकि ने खूब सोच-समझकर अपना पहला निशाना प्रेमचन्द पर ही साधा और उनकी प्रसिद्ध कहानी ‘कफ़न’ को दलित विरोधी सिद्ध करके गैरदलित साहित्य पर भी अनेक सवाल दागे। इन सवालों पर सबसे तीखी प्रतिक्रिया ‘समकालीन जनमत’ पत्रिका में हुई। ओमप्रकाश वाल्मीकि का आरोप था कि प्रेमचन्द ने ‘कफ़न’ कहानी च (चमार) को बदनाम करने के लिए लिखी है।” छद्म प्रहार करते डॉ. तेज सिंह आगे वाल्मीकि पर सीधा निशाना लगाने का मौका भी यूँ ढूँढ़ते हैं, “यह अलग बात है कि प्रेमचन्द पर ऐसा आरोप लगाने वाले खुद ओमप्रकाश वाल्मीकि आज च को बदनाम करने वाली ‘शवयात्रा’ जैसी दलित विरोधी कहानी लिख रहे हैं। “10

डॉ. तेज सिंह ‘शवयात्रा’ पर शुरू से ही अपने आलोचनात्मक स्टैंड पर खड़े रहे हैं। यह बात और है कि इधर वे इस कहानी की सीधे घनघोर आलोचना पर ही उतर गये थे। ‘दलित कथा साहित्य का एक वर्ष और बीत गया’ नामक आलेख” में वे आज से कोई 24 वर्ष पहले ही लिखते हैं कि “ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘शवयात्रा’ (इण्डिया टुडे, 22 जुलाई, 1998) दलित लेखकों में सर्वाधिक चर्चित और विवादास्पद कहानी रही है। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने कई वर्ष पहले प्रेमचन्द की ‘कफ़न’ कहानी को दलित विरोधी कहकर कटु आलोचना की थी और वे रातों-रात हिन्दी साहित्य में चर्चित हो गये। जिस साहित्यिक मानदंड के आधार पर यानी दलित चेतना के आधार पर उन्होंने ‘कफ़न’ को दलित विरोधी कहानी कहा था, क्या उसी मानदंड के आधार पर ‘शवयात्रा’ को दलित चेतना विरोधी कहानी नहीं ठहराया जा सकता है? निश्चित ही यह दलित चेतना विरोधी कहानी मानी जानी चाहिए। क्योंकि वाल्मीकि जी ने इस कहानी की शुरुआत नकारात्मक दृष्टिकोण से कही है। मानो अछूतों में अछूत बल्हार जाति का कल्लन ही चमारों का सबसे बड़ा दुश्मन है।” डॉ. तेज सिंह यहाँ सही प्रतीत होते हैं, और, आगे अपनी शिकायत को इन तर्कों से बलित करते हैं, “यह सही है कि दलित जातियों में भी जातिगत भेदभाव व्याप्त है पर समाज का मुख्य अन्तर्विरोध नहीं है बल्कि गौण है, जिसे सामाजिक परिवर्तन प्रक्रिया में धीरे-धीरे खत्म किया जा सकता है। दलित जातियों का मुख्य दुश्मन उसके अपने समुदाय के लोग नहीं बल्कि ब्राह्मणवाद और सामन्तवाद है जिसके भी अवस्थित होना चाहिए। साइबर स्पेस में मेरी पड़ताल बताती है कि वाल्मीकि के मुकाबले कुछ अदने से गैर दलित साहित्यकार भी अपनी रचनाओं के साथ काफी अधिक स्पेस लेकर यहाँ मौजूद हैं। यहाँ, यह जरूर है कि हिन्दी दलित साहित्यकारों में सबसे अधिक व्यापक उपस्थिति साइबर-संसार में भी ओमप्रकाश वाल्मीकि की ही है, मशहूर साइबर ज्ञान-कोश विकिपीडिया के अंग्रेजी एवं हिन्दी दोनों वेबसाइटों पर ओमप्रकाश वाल्मीकि की उपस्थिति है पर ये पृष्ठ बहुत सम्पन्न नहीं हैं। काफी संक्षिप्त जानकारी ही यहाँ अब तक जुटायी गयी है। मसलन, हिन्दी विकिपीडिया में ‘रचनात्मक अवदान’ वाला कॉलम महज चार छोटे-छोटे वाक्यों में निपटा दिया गया है। अंग्रेजी विकिपीडिया में ‘जूठन’ को कहीं उपन्यास बता दिया गया है तो कहीं आत्मकथा। ‘भारतीय साहित्य संग्रह’ नामक ब्लॉग पर उनकी कालजयी आत्मकथा ‘जूठन’ के कुछ अंश आत्मकथाकार के पुस्तक में अंकित वक्तव्य के साथ प्रदत्त हैं। जबकि इस जरूरी पुस्तक का पूरा पाठ कहीं साइबर स्पेस में उपलब्ध होना हमारे समय की माँग है।

अपने द्वारा संपादित किताब ’ओमप्रकाश वाल्मीकि : व्यक्ति, विचारक और सृजक’ में जयप्रकाश कर्दम बताते हैं कि वाल्मीकि के लेखन की विशेषता यह थी कि वह दलित और गैर-दलित सभी वर्गों द्वारा पढ़े जाते थे। किन्तु दोनों वर्गों के लिए समान रूप से महत्त्वपूर्ण और समादृत भी थे, यह नहीं कहा जा सकता। यदि ऐसा होता तो इतना महत्त्वपूर्ण लेखन करने के लिए उनको कोई न कोई बड़ा पुरस्कार अवश्य मिलता। कुछ छोटे-मोटे पुरस्कार ही वाल्मीकि जी को मिले हैं। उनका बड़ा राष्ट्रीय पुरस्कार भारतीय दलित साहित्य अकादमी द्वारा ही दिया गया है, केन्द्रीय अथवा राज्यों की साहित्य अकादमियों अथवा अन्य साहित्यिक संस्थाओं द्वारा नहीं जबकि इस दौरान अनेक ऐसे लेखकों को बड़े-बड़े पुरस्कारों से नवाज़ा गया है जिनका लेखन ओमप्रकाश वाल्मीकि के लेखन के समक्ष कहीं भी नहीं ठहरता ।

और, अन्त में ओमप्रकाश वाल्मीकि पर कुछ अपनी बात। जिस दिन वाल्मीकि का निधन हुआ उस दिन मैं एक व्यक्तिगत कार्य से हैदराबाद जा रहा था। शाम में पटना रेलवे स्टेशन पर ट्रेन पकड़ने के लिए इन्तजार में था तो गया में रहने वाले दलित कथाकार बिपिन बिहारी ने फोन पर सूचना दी कि ओमप्रकश वाल्मीकि नहीं रहे। उन्हें भी उनके किसी मित्र ने फोन पर ही सूचना दी थी। इस बीच पड़ोसी एवं सहकर्मी कवि राकेश प्रियदर्शी ने भी मुझे फोन कर यह इत्तिला दी। जब मोबाइल पर इंटरनेट के माध्यम से फेसबुक खोला तो कई लोगों ने उस समय तक यह दुखद सूचना साझा कर ली थी। सबसे पहले नोटिफिकेशन में मेरी नजर दलित लेखक कैलाशचन्द्र चौहान की तरफ गयी, उनके कॉमेंट में वाल्मीकि के देहावसान की ब्योरेवार सूचना थी। उन्होंने वाल्मीकि के साथ अपने घरेलू सम्बन्ध से लेकर बीमारी के दौरान उनके साथ अस्पताल में बिताये अपने समय, सेवा-शुश्रूषा एवं अपनी भागदौड़ की चर्चा की थी।

वाल्मीकि से मेरा सीधा सम्बन्ध कभी नहीं रहा। उनसे किसी साहित्यिक गोष्ठी-सम्मेलन आदि में भेंट-मुलाकात का भी कोई अवसर नहीं मिला। केवल कुल मिलाकर दो मौकों पर फोन से बातचीत करने का अनुभव है। एक बार तो मैंने उनकी ‘हंस’ में छपी किसी कहानी पर बात की थी जिसके कथ्य में मुझे बनावटीपन लगा था। कहानी के कुछ प्रसंग मुझे साफ गढ़े हुए जीवन से असम्पृक्त लगे थे। उन्होंने इस पर अपनी सफाई काफी संयत होकर दी थी, हालाँकि मैं उनके इस फीडबैक से सन्तुष्ट नहीं हुआ था। दूसरे अवसर पर मैंने अपने कार्यालय से प्रकाशित होने वाली साहित्यिक-वैचारिक पत्रिका के लिए रचना माँगी थी। उन्होंने सरकारी पत्रिका जान मुझसे पारिश्रमिक मिलने के बारे में जानकारी माँगी थी, और सूचना नकारात्मक पाकर, आशानुकूल न पाकर रचनात्मक सहयोग देने का कोई वादा उन्होंने न किया था।

सन्दर्भ :
1. महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा की वेबसाइट ‘हिन्दी समय’ पर वाल्मीकि का आलेख ‘दलित साहित्य के पुरोहित’

2. जूठन (अंग्रेजी), प्रकाशक, कोलम्बिया यूनिवर्सिटी प्रेस, अमेरिका, जुलाई, 2003, लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि

3. जूठन (अंग्रेजी), प्रकाशक, भटकल एवं सेन, भारत, प्रकाशन तिथि 01 अक्टूबर 2003

4. ‘अपेक्षा’, संयुक्तांक 46-47 (जनवरी-जून 2014), सम्पादक डॉ. तेज सिंह

5. वही

6. बीसवीं सदी का हिन्दी साहित्य, पृष्ठ संख्या 182-206, सम्पादक डॉ. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, भारतीय ज्ञानपीठ, प्रथम संस्करण, 2005

7. वही

8. पहल-80, अंक जुलाई-अगस्त, 2005, सम्पादक-ज्ञानरंजन

9. वही

10. वही

11. दलित साहित्य 1999, सम्पादक-जयप्रकाश कर्दम

12. तद्भव, अंक 4, सन 2000, सम्पादक-अखिलेश

Language: Hindi
Tag: लेख
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दोहा- अभियान
दोहा- अभियान
राजीव नामदेव 'राना लिधौरी'
एक शाम
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इंजी. संजय श्रीवास्तव
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