‘सिकुड़न’
सुनो न!
तुम्हारे साथ का वह
पहला मिलन
रिश्तों के
उन्मादी !
अवसरवादी !
रंगो से परे था।
भविष्य को साॅंसें देता
वह अद्भुत पल!
अब तक
मन की दहलीज पर
शगुन-अक्षत से भरे
कलश की तरह धरा है
चुपचाप।
जीवन के कारागार में
सपनों के नन्हें-नन्हें पाँव
यादों के जीने उतरते
चले जाते हैं
और
उलझते यथार्थ के
अनचीन्हे परिणाम
समय द्वारा..
छ्ले जाते हैं।
सुनो!
अपनी भागती दिनचर्या में अगर
कभी भी ठिठकना,
टूटना या कलपना
तो याद रखना
कि
आज भी
तुम्हारे बिना
छटपटाती है
पीपल के नीचे वाली छांव..
और
तुमसे छूटने के
बाद से
अब तक रो रहा है..
तुम्हारा
सिकुड़ता हुआ गाँव!
रश्मि ‘लहर’