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10 Nov 2024 · 1 min read

गर्दिश-ए-अय्याम

मै अकेला चला था इस सफ़र में
ना कोई हमराह , ना हम-सफ़र ,

मंजिल से बेख़बर इस आस में
कहीं तो पहुँचेगी ये डगर ,

राह में ठोकर खाकर कदम भटकते ,
कांटों की चुभन से पाँव घायल होते ,

फिर भी बढ़ता रहा लिये इक जोशे जुनूँ ,
शायद किसी मंज़िल पर पहुँच मिल जाये सुकूँ ,

मुझे ये इल्म़ न था गर्दिश -ए-अय्याम में
सुकूँ हासिल नही होता ,

आदमी कुदरत के हाथों की कठपुतली होता है ,
अपने मुस्तक़बिल का ख़ुद मालिक नही होता।

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