“मेरी बस इतनी सी अभिलाषा है”
बनके पताका नभ में गर्व से फहराऊं।
या बनके पुष्प, तेरे कदमों में बिखर जाऊं।
या बनके काली घटा, तेरे चरणों में शीश नवाऊं।
या बनके दीपशिखा जगत में रौशनी बिछाऊं।
या बनके चांद,तारे, तेरे गुलशन में जगमगाऊं।
या बनके ऊंची पर्वतमाला शान से इतराऊं।
या बनके वीर सपूत शरहद की सुरक्षा कवच बढ़ाऊं।
या बनके धीर किसान खेतों में हरियाली लाऊं।
बन सकूं कभी तो तेरे ही गुलशन का श्रृंगार बनूं।
या बनूं कभी तो तेरे गंगा-यमुना की धार बनूं ।
ऐ भारत मां! मेरी बस इतनी सी अभिलाषा है।
जो भी बनूं अगले जनम, तेरे ही चरणों की धूर बनूं ।।
जो भी बनूं अगले जनम तेरी सभ्यता, संस्कार बनूं।।
जो भी बनूं अगले जनम बस तेरे ही गले का हार बनूं।।
ऐ बन माली तोड़ मुझे, चढ़ाना ना सूर के वेदी।
ना चाहिए हमें शान शौकत, ना चाहिए ऐसी शेखी।।
स्वरचित व मौलिक रचना- राकेश चौरसिया