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22 Jun 2024 · 1 min read

अंतर्मन

अंतर्मन छितराता है
जब अपना कोई
दूर देश को जाता है
रह रहकर मन भर आता है
लाखों जतन जुटाकर भी
वो पास ना रहने पाता है
मन की पीड़ा मन ही मन
घुट घुटकर रह जाती है
अंतर्व्यथा ना जाने कोई
रोम रोम भर आता है
अभी तो ना बैठे थे दो पल
सुख दुख साझा करने को
बचपन से जो अब तक बीती
हर इक किस्सा कहने को
बात पुरानी महफिल की हो
या खिलती नव कलियों की
दुःख हो या सुख हो
सब मिलकर सहना ही
अपनापन है
बचपन में हर इक पल का झगड़ा
अब जाने क्यूं ना होता है
एक रुपए का सिक्का हो या
बागों की तोड़ी जामुन
ज्यादा हिस्सा किसका है
किसका कम किसका ज्यादा ।
फिर हाथापाई और छीना झपटी
कहां गई बचपन की छुट्टी
रहे ना वैसे बाग बगीचे
रही ना वैसी दहलीजें
पुरखे घर के कहां गए
अम्मा बाबा दीदी मौसी
सब अपने थे जो छूट गए
बैठ अकेला हरदम सोचूं
कहां गए वो कहां गए।
हाए ! सिसक सिसक कर
रो देता है मन
भर आते हैं आंसू
और खो जाता हूं मैं
फिर से अंतर्मन।

Language: English
3 Likes · 1 Comment · 143 Views

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