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31 May 2024 · 1 min read

दोहे

कोरोना के काल में, हर जन था भयभीत ।
हार मनुज की यह कहूँ, या प्रकृति की जीत।१।

चली हवा शह-मात की, बात बिना आधार।
ज्ञानवान वे बन गये, बिकते जो बाजार।२।

श्रावण की शुभ पूर्णिमा, धागों का त्यौहार ।
सागर से गहरा होता, बहन-भ्रातृ का प्यार ।३।

इन्द्राणी ने इंद्र को, बाँधी रक्षा डोर।
जीते सुर संग्राम तब, शंखनाद चहुँ ओर।४।

गुरुजन धागा शिष्य को, बांधि बताते मर्म ।
रहो समर्पित धर्म को, करो सदा सत्कर्म।५।

आये नहिं परदेश से, बीत रहा मधुमास।
नैन थके मग देखते, पिया मिलन की आस।६।

पिया मिलन की आस में, लगी जिया में आग।
बिन पीतम बोलो सखी, खेलूँ कैसे फाग।७।

आज उठाऊॅं लेखनी, लिख दूँ यह संदेश।
मैं विरहन बेकल यहाँ, आप बसे परदेश।८।

– नवीन जोशी ‘नवल’

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