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17 May 2024 · 1 min read

क्य़ूँ अपना सर खपाऊँ मैं?

क्य़ूँ अपना सर खपाऊँ मैं?
बेहतर है उसको ही जाकर बताऊँ मैं।
फैसला लेना छोड़ दूँ उस ही पर,
ग़र वो ना कह दे, फ़िर नज़र न आऊँ मैं।।

ग़र इश्क मुकम्मल हो जाये, तो चुप करके बैठना।
फ़िर आना पास मेरे, काला टीका तुम्हें लगाऊँ मैं।।

आने में क्यूँ देरी लगी, नहीं-नहीं मैं नाराज़ नहीं।
यूँ आवारा से फ़िरते हो, बैठो तुम्हें सजाऊँ मैं।।

थी रीत वही या कि प्रीत सजी, न मीत मिला, बस चाह रही।
सबकुछ मात्र छलावा है, जो समझो तो समझाऊँ मैं।।

प्रेम सफल यदि हो जाए, मन-पंछी न फ़िर उड़ पाये।
और जीना उसको कहते हैं, बैठो… बतलाऊँ मैं।।

अच्छा! अपनी ग़र बात करूँ, सुन तो लोगे यूँ भी तुम।
चंचलता और चपलता को खुद से, न बाहर कर पाऊँ मैं।।

श्रृंगार नहीं हर बार किया, औरों का दुःख अपने पे लिया।
चिंता ली, और बलिदान किया, क्यूँ न बलिदानी कहलाऊँ मैं?

ख़ास तुममें यह था कि,
तलाश मुझे थी अपनी ‘मय’ की, औ’ बनकर तुम आये ‘साकी’।
मिल जाती है अब हाला मुझको, जो ‘साकी-साकी’ चिल्लाऊँ मैं।।

– कीर्ति

Language: Hindi
117 Views
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