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30 Jan 2024 · 1 min read

बेवकूफ

क्योंकि
बेवकूफ हूँ मै
रख देती हूँ समस्त संवेदनाएँ सामने
जानती हूँ सच्चाई
अहसास भी है ब़ेक़द्र होने का
फिर भी रख देती हूँ
खोलकर मन को
माना इंतज़ार की आदत नहीं मुझको
करती हूँ मगर अंतिम हद तक
फिर आहत होकर
लौट आती है थकी हारी-सी
संवेदनाएँ
क्योंकि नहीं है फितरत
भीड़ में रहने की
वज़ूद को खोकर जीने की
बचा खुचा लेने की
आखिर अहमियत है मेरी भी
देती हूँ रिश्तों में समर्पण
हक़दार भी हूँ पाने की
लड़कर नही लिए जाते सदैव
स्वेच्छा से दिये जाते हैं कुछ
हर बार समेट लेती हूँ
बेकद्र होने से पहले खुद को
क्योंकि स्त्री हूँ
इसलिए बेवकूफ हूँ मैं ।

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