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15 May 2024 · 1 min read

ज़मीर की खातिर

आदमी हूं इसलिए टूट रहा हूं मैं।
बालू सा हाथों से छूट रहा हूं मैं।

उलझने इस कद्र बढ़ गई है यारो
गुब्बारों की तरह फूट रहा हूं मैं।

जोर चलता नही रति भर भी अब
खुद को ही खुद से लूट रहा हू मै।

चापलूसी नही है मेरे किरदार में
लोगो की नज़रों में खूंट रहा हूं मैं।

फिर एक सफर उम्मीद में हो रमेश
हर सफर में सब्र की घूंट रहा हूं मैं ।

Language: Hindi
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