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6 May 2024 · 1 min read

मुक्तक…

देह ये अवदान उसका, पुण्य जो तुमने किए हैं।
पाप बढ़ता देखकर भी,होंठ क्यों तुमने सिए हैं ?
चाँद तारे सूर्य नभ सर, भू नदी पर्वत घटाएँ,
हैं अलौकिक नेमतें जो, सब तुम्हारे ही लिए हैं।१।

देह दुर्लभ पा मनुज की, गफलतों में जी रहे हो।
सामने अमृत कलश है, फिर गरल क्यों पी रहे हो ?
बढ़ रहे अपराध कितने, पर तुम्हें परवाह न कोई,
ढाँपने किसकी कमी को, ओंठ अपने सी रहे हो ?।२।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद( उ. प्र. )

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