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29 Feb 2024 · 1 min read

कह्र ….

कह्र …

थक गयी है
बैठे बैठे
लबों पे हंसी
शायद
लब आडम्बर का ये बोझ
और न सहन कर पाएंगे
संग अंधेरों के
ये भी चुप हो जाएंगे
कफ़स में कहकहों के
ये दर्द बेवफाई का
छुपा न पाएंगे
बावज़ूद लाख कोशिशों के
ये
गुज़रे हुए लम्हों की आतिश से
बंद पलकों से
पिघल कर
सिरहाने को गीला कर जाएंगे
सहर की पहली शरर पे ये
रिस्ते ज़ख्मों का कह्र लिख जाएंगे

@सुशील सरना/

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