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17 Feb 2024 · 1 min read

कविता

प्रेम
प्रेम समर्पण प्रेम तपस्या
प्रेम जगत का सार है
जिस उर में नहीं प्रेम उपजा
वो जगती का भार है
मीरा और राधा ने सब
कुछ इसी प्रेम पर वार दिया
समझ सको तो समझो हरि
ने गीता का यह सार दिया
ईश और हर जीव केबीच
में यही एक आधार है
जिस उर में नहीं प्रेम उपजा
वो जगती का भारहै ।1।
यही तो है माता काआंचल
यही मित्र का साथ है
इसी से बंधते भगिनी भ्राता
भक्ति में झुकता माथ है
तुच्छ न समझो प्रेम की
कीमत यह अनुपम उपहार है
जिस उर में नहीं प्रेम उपजा
वो जगती का भारहै ।21
प्रेमतो केवल उसका धन
जिसका मन निर्मल पावन
कलुषित हृदय कपट छल से
इसका होता नहीं मिलन
पशु पक्षी प्रकृति का हर कण
बदले में देता प्यार है
जिस उर में नहीं प्रेम उपजा
वो जगत का भार है ।3।

नमिता शर्मा

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