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11 Feb 2024 · 5 min read

*राजकली देवी: बड़ी बहू बड़े भाग्य*

राजकली देवी: बड़ी बहू बड़े भाग्य
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( लेखक: रवि प्रकाश , बाजार सर्राफा, रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 9997615451)
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राजकली देवी मेरी ताई थीं। अक्टूबर 2002 में जब उनका देहांत हुआ, तब उनकी आयु लगभग अस्सी वर्ष से कुछ कम थी। आयु का अनुमान इस आधार पर है कि मेरे पिताजी रामप्रकाश सर्राफ का जन्म 9 अक्टूबर 1925 को हुआ था। मेरे ताऊ राम कुमार सर्राफ मेरे पिताजी से दो साल बड़े थे। राजकली देवी की मृत्यु के समय मेरी आयु बयालीस वर्ष की थी। इस तरह मुझे उन्हें निकट से देखने का तथा उनका आत्मीय सानिध्य पाने का बयालीस वर्षों का दीर्घ समय प्राप्त हुआ।
राजकली देवी का मायका मुरादाबाद का था। जब उनका रिश्ता रामपुर में लाला भिखारी लाल सर्राफ के सबसे बड़े पुत्र लाला राम कुमार सर्राफ के लिए आया, तो बात इस बिंदु पर अटकने लगी कि लड़की की उम्र लड़के से छह महीने ज्यादा है। तत्काल पारखी नजरों के धनी लाला भिखारी लाल सर्राफ ने सब दृष्टि से रिश्ता उपयुक्त समझते हुए आयु के प्रश्न पर अटकना उचित नहीं समझा और कहा कि लड़की का छह महीने बड़ा होना कोई बात नहीं है। फिर मुस्कुराते हुए सबसे कहने लगे कि बड़ी बहू बड़े भाग्य। इस तरह हॅंसी-खुशी के साथ राजकली देवी का विवाह लाला राम कुमार सर्राफ के साथ संपन्न हो गया।
सचमुच राजकली देवी बड़े भाग्य लेकर अपनी ससुराल में आईं । अपनी सेवा भावना से उन्होंने न केवल पति का दिल जीत लिया और उनकी आदर्श जीवन-संगिनी बनीं अपितु पूरे परिवार में उनकी चमक अलग ही दिखती थी।
घर-गृहस्थी के कामों में जब जुट जाती थीं तो लगता था मानों वह गृहस्थी चलाने के लिए ही बनी हों । मुनक्का का अचार जब तक वह जीवित रहीं, अपने जायके के अनूठेपन के साथ तैयार करती रहीं । मुनक्का के बीज निकालना कितना कठिन काम है, यह तो उनके बाद सबको मालूम हुआ और फिर मुनक्का का अचार पड़ना ही शायद बंद हो गया। सबने देखा है कि किस तरह जाड़ों में धूप में बैठकर अपने हाथ से पापड़ घर के तिमंजिले पर तैयार करने का उनका शौक था। इसका चलन भी उन दिनों काफी था। धीमी ऑंच पर कचौड़ियॉं और पकौड़ियॉं बनाने में उन्हें निपुणता प्राप्त थी। तात्पर्य यह है कि जब घर-गृहस्थी के कामों में जुड़ती थीं तो उसमें ही मगन हो जाती थीं। घर-गृहस्थी के कार्यों में उनका लगाव कुछ ऐसा ही था जैसे ध्यान-योग के साधक को अपने शरीर से संबंध रखना पड़ता है लेकिन वास्तव में तो वह परम ब्रह्म के सानिध्य के लिए ही यत्नशील रहता है। राजकली देवी भी ऐसी ही थीं ।
घर में रहते हुए भी वह अपनी एक विशिष्ट पहचान रखती थीं । सामान्य स्त्रियों के समान श्रृंगार में लगे रहना अथवा भौतिकतावाद से जुड़ी हुई छोटी-मोटी बातों में उलझे रहना उनका स्वभाव नहीं था। उनकी भाव-भंगिमा उन्हें अनंत में कोई खोज करती हुई अद्वितीय आत्मा का होना बताती थी। वह ऐसा व्यक्तित्व थीं जो संसार में रहते हुए भी संसार की सांसारिकता से परे थीं। आत्म-साक्षात्कार के अंतर्मुखी प्रयत्नों में लीन उनकी प्रवृत्ति को समझ कर ही हम उनके स्वभाव का सही मूल्यांकन कर पाऍंगे।

राजकली देवी का भरा-पूरा परिवार था। उनके सात पुत्र और दो पुत्रियॉं हुईं जिनके नाम क्रमशः सतीश चंद्र अग्रवाल, कमल कुमार अग्रवाल, कुमोद कुमार अग्रवाल, प्रमोद कुमार अग्रवाल, विनोद कुमार अग्रवाल, राकेश कुमार अग्रवाल, मुकेश कुमार अग्रवाल, मधु रानी तथा मीना रानी थे । अपनी सभी नौ संतानों को उन्होंने अच्छे संस्कार दिए तथा उनकी पढ़ाई-लिखाई में कोई कसर नहीं रखी।
साधु-संतों के प्रवचनों को सुनने में उनकी रुचि थी। रामपुर में जो संत आते थे वह उनके प्रवचन सुनने के लिए भी जाती थीं और अनेक बार अपने पति को प्रेरित करते हुए उन संतों को घर पर भी आमंत्रित करती थीं । अच्छे विचार प्राप्त करना तथा परिवार में स्थापित करना उनकी प्रवृत्ति थी।
खानपान के मामले में वह न केवल शुद्ध शाकाहारी थीं बल्कि प्याज और लहसुन का भी परहेज करती थीं । व्रत और उपवास उनके चलते रहते थे। दुबला-पतला शरीर था लेकिन साहस और आत्मबल का उन में भंडार था। अनुशासन प्रिय थीं ।जहॉं किसी बच्चे ने अनुशासन भंग किया वह उससे नाराज हो जाती थीं और अनुशासन का पालन करा कर ही दम लेती थीं । इससे परिवार को व्यवस्थित रखने में कितनी मदद मिलती है, यह घर-गृहस्थी वाले लोग ही समझ सकते हैं।

उनके पति राम कुमार सर्राफ को जीवन के अंतिम वर्षों में फालिज की बीमारी हो गई थी। यह परिवार में पुश्तैनी मर्ज था, जिसके कारण शरीर को भारी क्षति पहुॅंचती है। राजकली देवी की पति-सेवा अद्भुत रही। उन्होंने घर से बाहर कहीं भी आना-जाना बंद कर दिया और पूरा समय अपने पति की सेवा में लगाया। सारा सेवा-कार्य वह स्वयं करती थीं । पति को एक क्षण के लिए भी यह एहसास नहीं होने देती थीं कि वह अकेले हैं। इसके मूल में उनका पति से अद्भुत प्रेम था और कर्तव्य-परायणता की भावना भी थी। सब कुछ करते हुए भी उन्होंने कभी भी एक बार भी अपने मुॅंह से किसी प्रकार के कष्ट अथवा परेशानी का उल्लेख किसी से नहीं किया।

राजकली देवी ने समाज की बड़ी भारी सेवा की है। समाज सेवा उनकी प्रवृत्ति थी। 1970 में उनके देवर राम प्रकाश सर्राफ ने टैगोर शिशु निकेतन में ‘शैक्षिक पुस्तकालय’ की स्थापना की थी। एक वर्ष तक यह शैक्षिक पुस्तकालय भली-भॉंति चलता रहा । फिर सन 1971 में राम प्रकाश सर्राफ ने शैक्षिक पुस्तकालय को टैगोर शिशु निकेतन के सामने वाली जमीन पर स्थानांतरित करने की योजना बनाई। यह जमीन राम प्रकाश सर्राफ ने 1962 में कुॅंवर लुत्फे अली खॉं से खरीदी थी। राजकली देवी ने अपने सहज सेवाभावी स्वभाव के कारण योजना में बहुमूल्य दान दिया और इस तरह शैक्षिक पुस्तकालय का न केवल नए भवन में स्थानांतरण हुआ अपितु उसका नया नामकरण राजकली देवी शैक्षिक पुस्तकालय हो गया। इस तरह ‘राजकली देवी शैक्षिक पुस्तकालय’ सेवा भावना की दृष्टि से श्रीमती राजकली देवी के व्यक्तित्व और कृतित्व के एक उच्च शिखर स्वरूप सदैव के लिए स्थापित हो गया।

4 अगस्त1986 को श्रीमती राजकली देवी के पति राम कुमार सर्राफ का देहांत हो गया। उनकी स्मृति में समाज सेवा का कुछ कार्य करने की आपकी इच्छा बलवती हो उठी। ज्वाला नगर, रामपुर में वैद्य जी का श्याम मंदिर था। वैद्य जी के साथ मिलकर आपने वहॉं पर एक धर्मशाला बनवाई। इस कार्य में आपके सबसे बड़े पुत्र सतीश चंद्र अग्रवाल का विशेष सहयोग रहा, जो वैद्य जी के पुराने प्रशंसक थे और उनके सहयोगी भी थे।

जीवन के अंतिम वर्षों में परमात्मा ने राजकली देवी नेत्र बैंक की स्थापना का सर्वश्रेष्ठ कार्य आप से संपन्न कराया। हुआ यह कि आपके पुत्र विनोद कुमार का कुछ धन आपके पास था, जिसे आप विनोद कुमार के जीवन काल में ही किसी सत्कार्य में लगाना चाहती थीं । आपने अपने देवर राम प्रकाश सर्राफ से विचार-विमर्श किया और उसके बाद यह तय हुआ कि नेत्र बैंक खोला जाए। तदुपरांत डालमिया नेत्र चिकित्सालय में नेत्र बैंक खोलने के लिए डॉक्टर किशोरी लाल से बातचीत हुई । कार्य में सफलता मिली और इस तरह राजकली देवी नेत्र बैंक की स्थापना का सुनहरा अध्याय राजकली देवी के जीवन की सार्थकता को गंतव्य तक ले जाने वाला सिद्ध हुआ।
संयोग यह भी रहा कि राजकली देवी नेत्र बैंक को ऑंखों का पहला दान स्वर्गीय राजकली देवी के नेत्रदान से ही प्राप्त हुआ। मैंने इस नेत्रदान की प्रक्रिया का वर्णन अपने एक विस्तृत लेख के माध्यम से रामपुर से प्रकाशित होने वाले हिंदी साप्ताहिक सहकारी युग में किया था।

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