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7 Dec 2023 · 3 min read

तेवरी-आन्दोलन युगानुरूप + शिव योगी

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मैं काव्य की हर विधा को एक महान रचनात्मक फलक देने वाली रचना-प्रक्रिया मानता हूँ। गद्य में मैंने अधिक काम नहीं किया है। ललक गद्य में भी कुछ ऐसा लिखने की है, जो पीड़ाओं का एक ऐसा प्रकोप हो, जो सुविधा-भोगी धनकुबेरों को उनके ऊपर खतरा बन मँडराता-सा लगे।
पीड़ाओं का, दलित जिन्दगी का, अभावों और शोषण का मात्र जिक्र करने से व्यवस्था कहाँ सुनती है कि उससे कुछ बढि़या उम्मीदें की जा रही हैं। शोषित समाज, सारा का सारा जनसमूह समवेत स्वर में कुछ भी बोलने लगे तो किसी भी कोने से आवाज आयेगी कि कुछ होने लगा है। यही ‘कुछ होना’ जन-जन की सम्भावनाओं को तेवरी के रूप में एक नया रंग देने लगता है।
श्री रमेशराज ने तेवरी के बारे में जो मान्यताएँ तय की हैं, ये सभी मान्यताएँ हर युग के सार्थक लेखन की होती हैं। समकाल से सृजन और प्रतिबद्ध लेखक की अहम् भूमिका त्रासद परिवेश की विडंबनाओं से निपटने, शत्रुवर्ग को ललकारने की गूँज होता है। यह सही है कि यातानाग्रस्त जीवन लगभग दयनीय-सा लगने लगता है, किन्तु इन शनिश्चरी, भयावनी, कटखनी स्थितियों को आदमी कब तक भोगता रहे, कब तक ढोता रहे? काँटों-सी चुभती पीड़ाओं को, चुनौतियों को परास्त कर उनसे उबारना है तो तेवर दिखाने ही होंगे। ऐसे तेवर रचनात्मक आवेश युक्त आवेग त्वरित ऊर्जा लिए हुए होने चाहिये।
हर समयविशेष में काव्य की विषयवस्तु, सृजनात्मकबिम्ब व रचना-प्रक्रिया उस कालखण्ड की समस्त ठोस उपलब्ध्यिों को उजागर करती हुई रहनी चाहिए। कारगर साहित्य के अनुरूप कालविशेष के कुछ अपने मापदण्ड होते हैं, उन मापदण्डों के आधार पर सृजित हो रहे साहित्य की पड़ताल होती है। मैं कहता हूँ कि तेवरी आन्दोलन भी एक युगानरूप जन-जन को उनके हितों के दिलवाने का, दलितों को दलदल से बाहर निकालने का, कुल मिलाकर सर्वहारा का अमूर्त किन्तु जरूरी हथियार है, जो रोजी-रोटी की लड़ाई में विजय दिलवाने का उपक्रम है। मुझे यह कहने में कतई हिचक नहीं है कि समकालीन लेखन में सृजित होता हुआ तेवरी साहित्य उस महाजाल से आदमी को मुक्ति दिलाने की शिकरत कर रहा है।
इधर यहाँ राजस्थान में तेवरी रचनाएँ बहुत कम देखने को मिलती हैं। राजस्थान युगीन संदर्भों में तेवरी मिजाज के राजपूतों की महान परम्पराओं का प्रदेश रहा है। यहाँ का इतिहास बहुत समृद्ध है, किन्तु वर्तमान में या समकालीन संदर्भों में बहुत हैरानी होती है, जो सृजन हो रहा है उसे पढ़कर।
श्री रमेशराज ने उल्लेख किया है कि ‘तेवरी न तो कोई ग़ज़ल से साम्य रखती है-न विरोध’, लेकिन मैं तो तेवरी कार्यक्रम को किन्हीं सीमाओं सिमटता हुआ नहीं देखता हूँ। कोई भी लेखन किसी भी विधा में हो, यदि वह इन मान्यताओं को स्वीकारता है तो तेवर उसका प्राण होता है। मैंने ऐसे नवगीत भी लिखे हैं जो नवगीत के फार्म से बिल्कुल अलग से हैं और वे गीत तेवरी-गीत हैं। ऐसे गीतों में ही तो कथ्य की सीधी-सीधी टक्कर उस वर्ग के खिलाफ होती है जो जालिम है। वह वर्ग जो दलितों का जघन्य शोषण करता है, उससे ऐसे गीतों की जुबान सीधे स्वस्थ खास अन्दाज में झँझोड़ती हुई उस ठेठ लड़ाई की भूमिका रचती है जो हर युग में अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिये पूरी हिम्मत और दिलचस्पी के साथ जमकर लड़ी जाती है।

मेरा मानना है कि समकाल के लेखन की माँग है कि भ्रष्ट व्यवस्था के काले कारनामों की चुगल करने मात्र से कुछ भी नहीं होगा, बल्कि उनके बुरे इरादों को मोड़ देने की जबरदस्त दखल होनी चाहिए। जरूरत उस लेखन की है जो अभावों में मर रहे गरीबों का, भूख से दम तोड़ रहे बेघरबारियों का, दलित-मजदूरों, सर्वहाराओं का पक्षधर हो, सृजन की साक्ष्य में उनकी पैरवी कर रहा हो। मैंने खुद भी रोजी-रोटी की जोड़-तोड़ के, छल-प्रपंच करने वाली काली-कलूटी पिशाचिनी कर-व्यवस्था को तोड़-फोड़ के, जीवन को थका देने वाली भागदौड़ के तथा उन समय सापेक्ष क्षणों को तेवरी गीतों में उकेरा है। तेवरी रचनाओं का शिल्प या विषयवस्तु क्या है, यह महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि महत्वपूर्ण तो यह होना है कि तेवरी रचनाएँ हमारी सम्भावनाओं को कहाँ तक आगे ले जाती हैं?

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