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18 Nov 2023 · 4 min read

#कड़े_क़दम

#कड़े_क़दम
■ जो बनाएं सोशल प्लेटफॉर्म पर अनुशासन का माहौल।।
◆ चुनाव में विधानों को न लगे पलीता।
★ सरकारों सा तमाशाई न बने आयोग।
【प्रणय प्रभात 】
सोशल मीडिया की भूमिका और महत्ता आज किसी से छिपी हुई नहीं है। लेकिन इसके उपयोग के साथ-साथ दुरुपयोग की स्थिति भी सर्वविदित है। इसकी वजह है सोशल नेटवर्किंग साइट्स के मनमाने उपयोग की आज़ादी। जिसका अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से कोई सरोकार नहीं है। वास्ता केवल करोड़ों की कमाई और अरबों के कारोबार से है। फिर चाहे किसी व्यक्ति या समुदाय को चोट पहुंचे या किसी राष्ट्र की संप्रभुता व अस्मिता को।
अब समय आ गया है जब कथित सुशासन का दावा करने वाली सरकारों को इस दिशा में ध्यान देते हुए कुछ आवश्यक पाबंदियां लागू करनी चाहिए। ताकि इस आभासी दुनिया के अच्छे मंचों व संवाद-संपर्क के माध्यमों का दुरुपयोग न हो पाए। इसके लिए ज़रूरी यह है कि सरकार सोशल मीडिया का सदुपयोग ख़ुद सुनिश्चित करें और इसके लिए बड़े क़दम तत्काल उठाए। ताकि इन माध्यमों का हाल बंदर के हाथ लगे उस्तरे सा न हो।
पांच राज्यों के चुनावी माहौल के शुरुआती दौर में फेसबुक, व्हाट्सअप और इंस्टाग्राम जैसे प्लेटफॉर्म पर निर्वाचन आयोग के नियमों और विधानों की जो धज्जियां उड़ती नज़र आईं, उनकी पुनरावृत्ति चुनाव के अगले चरणों में भी तय है और आम चुनाव में भी। पोस्ट के नाम पर पेड-न्यूज की जो बाढ़ गत दिवस मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ के चुनाव से पहले दिखाई दी, लोकतंत्र के लिहाज से बेहद शर्मनाक थी।
लाखों की तादाद में सक्रिय एकाउंट्स, पेज़ेज और ग्रुप्स के जरिए करोड़ों की रक़म दलों व उम्मीदवारों ने प्रचार-प्रसार के नाम पर खपाई। जिन्हें अधिकतम व्यय-सीमा तय करने वाला आयोग तमाशाई बन देखता रहा। पेड-न्यूज़ सहित भ्रामक व आपत्तिजनक सामग्री पर कड़ी निगरानी व नियंत्रण के दावे पूरी तरह खोखले व झूठे साबित हुए। जिन्हे लेकर प्रशासनिक मशीनरी महीने भर से ताल ठोक रही थी। सरकार नाम की चिड़िया चुनावी-काल में होती नहीं। होती भी तो कुछ करती नहीं, क्योंकि नियम-कायदों को अपने फायदे के लिए अंधी दौड़ बनाने के लिए सत्तारूढ़ दल और उनके कारिंदे अग्रणी रहे। नतीज़तन, प्रचार-प्रसार के नाम पर वो सब खुले-आम हुआ, जो प्रतिबंधित था।
बड़े चैनलों व अखबारों की मॉनिटरिंग की डुग्गी रात-दिन पीटने वाले सिस्टम की नाक के नीचे सीज़नल अखबार व रीज़नल चैनल कारोबार-कारोबार खेलते रहे। प्रशासन को हर बार की तरह गाल बजाने के सिवाय न कुछ करना था, न उसने किया।
इस तरह के शर्मनाक प्रयास जाते साल के आखिरी माह से लेकर आने वाले साल के पूर्वार्द्ध में सफल न हों, इसके लिए उस चुनाव आयोग को कड़े निर्णय लेने होंगे, जिसके नियम-विधान केवल आम आदमी के लिए आपदा का सबब बनते आ रहे हैं। चुनाव आयोग की ज़िम्मेदारी इसलिए अहम है, क्योंकि सरकारों को सिंहासन पर बने रहने के लिए ऐसे हथकंडों से शायद कोई परहेज़ या गुरेज़ नहीं। ख़ास कर उन दलों और राजनेताओं को, जिनकी अपनी दुकानें सोशल मीडिया के रहमो-करम से चल रही हैं।
यदि यह सच नहीं, तो देश-प्रदेशों की सरकारों को चाहिए कि सोशल मीडिया के माहौल को विधि-सम्मत व अनुशासित बनाने के लिए बड़े क़दम उठाएं। जो समय की मांग के अनुसार कुछ ऐसे हो सकते हैं:-
● 01- मेल आईडी बनाने के लिए फोटोयुक्त पहचान-पत्र तथा मोबाइल नंबर की अनिवार्यता लागू हो। भले ही उसे गोपनीय रखा जाए।
● 02- फेसबुक, व्हाट्सअप, इंस्टाग्राम व ट्विटर या इस तरह की अन्य साइट्स पर वास्तविक नाम व पहचान के साथ ही एकाउण्ट बन पाएं, जिनमें अनावश्यक विशेषण या फ़र्ज़ी नाम व टाइटल्स न हों।
● 03- यूजर का पूरा नाम व सही चित्र सार्वजनिक हो, ताकि उसे अपनी मर्यादा और नियम-विधानों के पालन का आभास बना रहे।
● 04- एक आईडी से एक प्लेटफॉर्म पर एक ही एकाउण्ट संचालित हो तथा यूजर को मेल आईडी पर अपना प्राथमिक नाम और फोटो बार-बार बदलने की छूट न हो।
● 05- प्रचलित भाषाओं की अभद्र और अश्लील शब्दावली का उपयोग पूर्णतः प्रतिबंधित हो तथा उनकी पुनरावृत्ति पर एकाउण्ट स्वतः बंद हो जाए।
● 06- समूह, पेज़ या ब्लॉग आदि बनाने की अनुमति स्पष्ट सूचनाओं व जानकारियों को प्राप्त करते हुए ही दी जाए, ताकि दुरुपयोग रुके।
● 07- चुनाव, आपदा या अशान्तिकाल में एकाउंट के ज़रिए विधानों के उल्लंघन को संज्ञेय अपराध घोषित कर सज़ा व जुर्माने का कड़ा प्रावधान तय हो।
● 08- अनियंत्रित व णार्यादित सामग्री व सूचना को साझा करना वर्जित हो तथा ऐसा करने वालों के विरुद्ध कार्यवाही तय हो।
इस तरह के तमाम समयोचित संशोधन करते हुए उस माहौल पर भी प्रभावी अंकुश लगाया जा सकता है जो गृहयुद्ध जैसे हालातों को बढ़ावा देने वाला साबित हो सकता है। आज अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर जिस तरह की उद्दण्डता और अभद्रता देश-दुनिया में चल रही है, उसे देखते हुए नहीं लगता कि यह सोशल मीडिया व नेटवर्किंग प्रणाली डिज़ीटलाइज़ेशन की दिशा में बहुत उपयोगी साबित हो पाएगी। तमाम लोगों को सुझावों से आपत्ति हो सकती है उससे मुझे कोई आपत्ति नहीं। तमाम लोगों के पास इससे बेहतर तमाम सुझाव हो सकते हैं। जो उन्हें सिस्टम के सामने रखने चाहिए। ऐसा मेरा अपना मानना है। आपकी सहमति-असहमति आपका अपना अधिकार है। जिसका मैं सदैव की तरह स्वागत व सम्मान करता हूँ।
■प्रणय प्रभात■
●संपादक/न्यूज़&व्यूज़●
श्योपुर (मध्यप्रदेश)

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